ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 83/ मन्त्र 6
व॒यमिद्व॑: सुदानवः क्षि॒यन्तो॒ यान्तो॒ अध्व॒न्ना । देवा॑ वृ॒धाय॑ हूमहे ॥
स्वर सहित पद पाठव॒यम् । इत् । वः॒ । सु॒ऽदा॒न॒वः॒ । क्षि॒यन्तः॑ । यान्तः॑ । अध्व॑न् । आ । देवाः॑ । वृ॒धाय॑ । हू॒म॒हे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
वयमिद्व: सुदानवः क्षियन्तो यान्तो अध्वन्ना । देवा वृधाय हूमहे ॥
स्वर रहित पद पाठवयम् । इत् । वः । सुऽदानवः । क्षियन्तः । यान्तः । अध्वन् । आ । देवाः । वृधाय । हूमहे ॥ ८.८३.६
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 83; मन्त्र » 6
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 4; मन्त्र » 1
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अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 4; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
O Vishvedevas, generous and leading divinities of earth and heaven, whether we abide in the home or go out on the paths of the wide world, we call upon you only, for the sake of guidance and advancement.
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वराच्या सृष्टीत विद्यमान दिव्य गुणी जड-चेतन, मूर्त-अमूर्त देवतांच्या साह्यतेची अपेक्षा त्या साधकांनाही असते जे सृष्टिकर्त्याच्या नियमात बद्ध आहेत व स्वत:ला योग्य मार्गावर चालत असल्याचे समजतात. उपासक कितीही सावधान असेल तरीही त्याने दिव्य गुणी लोकांचा सत्संग सोडता कामा नये. ॥६॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे (सुदानवः) सुदानकर्ता (देवाः) दिव्य जन (वयम्) हम उपासक (क्षियन्तः) सनातन नियमों का पालन करते हुए; (वः) आपके सुझाये गये (अध्वन्) मार्ग पर (यान्तः) चलते हुए (इत्) भी (वृधाय) और अधिक उन्नति हेतु आप को (आ, हूमहे) पुकारते हैं॥६॥
भावार्थ
प्रभु की सृष्टि में विद्यमान दिव्य गुणी जड़-चेतन, मूर्त-अमूर्त देवताओं की मदद की अपेक्षा उन साधकों को भी है जो सृष्टिकर्ता के नियमों को मानते हैं और स्वयं को सही मार्ग पर चलता समझते हैं। उपासक कितना ही सावधान क्यों न हो, उसे दिव्य गुणियों का सत्संग नहीं त्यागना चाहिये॥६॥
विषय
विद्वान् तेजस्वी, व्यवहारकुशल विद्वान् जनों के कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे ( सु-दानवः ) उत्तम दानशील ( देवाः ) नाना उत्तम कामनाओं वाले, व्यवहारकुशल पुरुषो ! ( वयम् इत् ) हम ही ( क्षियन्तः ) निवास करते हुए और ( अध्वन् यान्तः ) मार्ग में जाते हुए भी ( वः ) आप लोगों की ( वृधाय ) वृद्धि के लिये ( हूमहे ) बुलाते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कुसीदी काण्व ऋषिः॥ विश्वे देवताः॥ छन्दः—१, २, ५, ६, ९ गायत्री। ३ निचृद गायत्री। ४ पादनिचृद गायत्री। ७ आर्ची स्वराड गायत्री। ८ विराड गायत्री।
विषय
'क्षियन्तः-यान्तः' [देवान् हूमहे]
पदार्थ
[१] हे (सुदानवः) = [दाप् लवने] बुराइयों का अच्छी प्रकार छेदन करनेवाले देवो ! (वयम्) = हम (इत्) = निश्चय से (क्षियन्तः) = घरों पर निवास करते हुए [क्षि निवासे] व यज्ञादि कर्मों में गतिवाले होते हुए [क्षि गतौ ] तथा इन यज्ञादि कर्मों के लिये सामग्री को जुटाने के लिये (अध्वन् आयान्तः) = मार्ग पर चारों ओर गति करते हुए, अर्थात् विविध कर्मों में लगे हुए (वः हूमहे) = आपको ही पुकारते हैं । [२] हे (देवा:) = दिव्य वृत्ति के पुरुषो! आप ही (वृधाय) = हमारी वृद्धि के लिये होते हो अथवा 'मित्र, वरुण व अर्यमा' आदि दिव्यभाव ही हमारी वृद्धि के लिये होते हैं।
भावार्थ
भावार्थ - घर पर यज्ञादि कर्मों के लिये निवास करते हुए तथा साधन संग्रह के लिये मार्गों पर चलते हुए हम देवों का आह्वान करते हैं। इनका रक्षण ही हमारी वृद्धि के लिये होता है।
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