ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 87/ मन्त्र 2
ऋषिः - कृष्णो द्युम्नीको वा वासिष्ठः प्रियमेधो वा
देवता - अश्विनौ
छन्दः - निचृत्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
पिब॑तं घ॒र्मं मधु॑मन्तमश्वि॒ना ब॒र्हिः सी॑दतं नरा । ता म॑न्दसा॒ना मनु॑षो दुरो॒ण आ नि पा॑तं॒ वेद॑सा॒ वय॑: ॥
स्वर सहित पद पाठपिब॑तम् । घ॒र्मम् । मधु॑ऽमन्तम् । अ॒श्वि॒ना॒ । आ । ब॒र्हिः । सी॒द॒त॒म् । न॒रा॒ । ता । म॒न्द॒सा॒ना । मनु॑षः । दु॒रो॒णे । आ । नि । पा॒च॒म् । वेद॑सा । वयः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
पिबतं घर्मं मधुमन्तमश्विना बर्हिः सीदतं नरा । ता मन्दसाना मनुषो दुरोण आ नि पातं वेदसा वय: ॥
स्वर रहित पद पाठपिबतम् । घर्मम् । मधुऽमन्तम् । अश्विना । आ । बर्हिः । सीदतम् । नरा । ता । मन्दसाना । मनुषः । दुरोणे । आ । नि । पाचम् । वेदसा । वयः ॥ ८.८७.२
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 87; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 10; मन्त्र » 2
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अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 10; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Come Ashvins, leading lights of humanity, sit on the seats of holy grass on the vedi and enjoy and participate in the honey sweet warmth of yajna, social culture, knowledge and discipline of the human community. Happy and joyful in the human home, in the human body, enjoy, preserve and promote life with the wealth and knowledge you have.
मराठी (1)
भावार्थ
गृहस्थ स्त्री-पुरुषांनी पृथ्वीवरील मानवांमध्ये स्थिरतेने निवास करून वेदज्ञानाद्वारे प्राप्त झालेल्या आत्मिक पवित्रतेचा उपभोग करावा व या प्रकारे याच मानव देहातही सर्व प्रकारचे ऐश्वर्य प्राप्त करून आपल्या जीवनात उपभोग करावा. ॥२॥
टिप्पणी
(बर्हि:- अयं लोको बर्हि: श. १-४-१-२४, ब्रह्मवर्चर्सं वै धर्म: - तै.सं. २-२-७-२)
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे (अश्विना) गृहाश्रम के कृत्यों में रत (नरा) गृहस्थ नर-नारियो! तुम (बर्हिः) इस धरती पर (सीदतम्) स्थिरता से बसो; (मधुमन्तम्) रुचिकर (घर्मम्) ब्रह्मवर्चस् [आत्मिक पवित्रता] का (पिबतम्) उपभोग करो; (ता) वे तुम दोनों (मनुषः) मनुष्य के (दुरोणे) गृहरूप शरीर में (मन्दसानाः) हर्षित होते हुए (वेदसा) सुख प्रदाता धनादि ऐश्वर्य द्वारा (वयः) अपनी कमनीय वस्तु जीव की (आ पातम्) रक्षा करो या सुखपूर्वक जीवन का उपभोग करो॥२॥
भावार्थ
गृहस्थ नर-नारी पृथिवी स्थित मानवों के बीच स्थिरता से निवास करते हुए वेदज्ञान के द्वारा प्राप्तव्य आत्मिक मानवता का उपभोग करें और इस तरह इसी मानव-शरीर में ही सब प्रकार का ऐश्वर्य प्राप्त कर स्वजीवन का उपभोग करें॥२॥
विषय
राजा और शासकों अश्वादि सैन्य एवं सेनापति, उन के कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे ( अश्विना ) अश्ववत् राष्ट्र के भीतर नियुक्त जनों के स्वामी जनो ! आप दोनों ( नरा ) नायक जन ( बर्हिः ) आसनवत् इस राष्ट्र प्रजाजन के ऊपर ( आ सीदतम् ) अध्यक्षवत् विराजो और ( मधुमन्तं ) बलयुक्त (धर्मं) तेज और रस का मधुयुक्त ओषधि-रसवत् पान, उपभोग और संरक्षण करो। ( मनुषः दुरोणे ) मनुष्य के आश्रय रूप गृह के समान उत्तम रक्षा स्थानवत् ( मनुषः दुरोणे ) सर्वसाधारण मनुष्य के लिये दुष्प्राप्य राजपद पर ( मन्दसाना ) अति हर्ष लाभ करते हुए ( ता ) वे आप दोनों ( वेदसा ) धन के द्वारा ( वयः ) राष्ट्र के बल, जीवन और अन्न समृद्धि की ( निपातम् ) रक्षा करो। इसी प्रकार प्रत्येक गृह में स्त्री पुरुष आसन पर बैठें, मधुर रस युक्त अन्न, ओषधि रस पान करें। सुप्रसन्न होकर धन और ज्ञान से जीवन की रक्षा करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कृष्णो द्युम्नी द्युम्नीको वा वासिष्ठ आंगिरसः प्रियमेधो वा ऋषिः॥ अश्विनी देवते॥ छन्दः—१, ३ बृहती। ५ निचृद् बृहती। २, ४, ६ निचृत् पंक्तिः॥ षडृचं सूक्तम्॥
विषय
वेदसा वयः
पदार्थ
[१] हे (अश्विना) = प्राणापानो! (मधुमन्तम्) = जीवन को मधुर बनानेवाले (धर्मम्) = शरीर में क्षरित होनेवाले सोम को (पिबतम्) = शरीर में ही पीनेवाले होओ। हे (नरः) = हमें उन्नतिपथ पर ले चलनेवाले प्राणापानो! आप (वर्हिः सीदतम्) = हमारे वासनाशून्य हृदयासन पर (सीदतम्) = आसीन होओ। हमें सदा हृदय में प्राणसाधना पर पूर्ण आस्था हो । [२] (ता) = वे (मनुषः दुरोणे) = इस मानव शरीररूप गृह में (मन्दसाना) = सोमरक्षण द्वारा हर्षित होते हुए आप (वेदसा) = ज्ञान के साथ (वयः) = आयुष्य का (निपातम्) = रक्षण करो। हमारा जीवन ज्ञानवाला व दीर्घ हो ।
भावार्थ
भावार्थ- प्राणापान सोम का रक्षण करते हैं। जीवन को यह ज्ञानमय व दीर्घ बनाते हैं।
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