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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 89 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 89/ मन्त्र 2
    ऋषिः - नृमेधपुरुमेधौ देवता - इन्द्र: छन्दः - पादनिचृत्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    अपा॑धमद॒भिश॑स्तीरशस्ति॒हाथेन्द्रो॑ द्यु॒म्न्याभ॑वत् । दे॒वास्त॑ इन्द्र स॒ख्याय॑ येमिरे॒ बृह॑द्भानो॒ मरु॑द्गण ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अप॑ । अ॒ध॒म॒त् । अ॒भिऽश॑स्तीः । अ॒श॒स्ति॒ऽहा । अथ॑ । इन्द्रः॑ । द्यु॒म्नी । आ । अ॒भ॒व॒त् । दे॒वाः । ते॒ । इ॒न्द्र॒ । स॒ख्याय॑ । ये॒मि॒रे॒ । बृह॑द्भानो॒ इति॒ बृह॑त्ऽभानो । मरु॑त्ऽगण ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अपाधमदभिशस्तीरशस्तिहाथेन्द्रो द्युम्न्याभवत् । देवास्त इन्द्र सख्याय येमिरे बृहद्भानो मरुद्गण ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अप । अधमत् । अभिऽशस्तीः । अशस्तिऽहा । अथ । इन्द्रः । द्युम्नी । आ । अभवत् । देवाः । ते । इन्द्र । सख्याय । येमिरे । बृहद्भानो इति बृहत्ऽभानो । मरुत्ऽगण ॥ ८.८९.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 89; मन्त्र » 2
    अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 12; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra bums and blows away all curses and calumnies and shines in power and glory beyond scandalous criticism. O refulgent lord of power and force, commanding the host of Maruts, vibrant leading forces of nature and humanity, brilliant and generous sages and divines try to achieve kinship as friends with you.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमप्रभूप्रमाणे धनाढ्य राजा इत्यादींनीही दंभी लोचट लोकांना आपल्यापासून दूर ठेवावे. जे सज्जन या प्रकारे दंभी (ढोंगी) लोकांच्या श्रेणीत न राहता समर्थ पुरुषांचे मित्र बनतात, त्यांच्या मैत्रीसाठी जणू जिवंत राहतात. ते परम यशस्वी होतात. ॥२॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (अशस्तिहा) अकल्याणकारी आशंकाओं का नाशक (इन्द्रः) शुभसंकल्पधारी जीव या राजा (अभिशस्तीः) सामने प्रशंसा करने वाले दम्भियों को (अप, अधमत्) धमकाकर दूर करता है। (अथ) अनन्तर वह इन्द्र (द्युम्नी) बहुत से प्रशंसारूप धनवाला (आ भवत्) हो जाता है। हे (बृहद्भानो) किरणों वाले सूर्य तुल्य महातेजस्वी मरुद्गण मनुष्यों अथवा पवनों के समूह से कार्यसाधक उपर्युक्त इन्द्र! (देवाः) दिव्यगुणी इन्द्रियाँ अथवा विद्वज्जन (ते) आपकी (सख्याय) मित्रता हेतु (येमिरे) जीवन धारण करते हैं॥२॥

    भावार्थ

    प्रभु के समान धनाढ्य राजा आदि के लिये उचित है कि वे चाटुकारी दम्भियों को अपने से दूर रखें। जो सज्जन इस प्रकार दम्भियों की श्रेणी में न रहकर समर्थ पुरुषों के वास्तविक मित्र बने रहते हैं, उनकी मैत्री के लिये मानो जीवित रहते हैं; वे परम यशस्वी होते हैं॥२॥

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    विषय

    इन्द्र प्रभु की स्तुति।

    भावार्थ

    ( अशस्तिहा इन्द्रः ) अपकीर्त्तियों और स्तुत्यादि से रहितों का नाशक वह ऐश्वर्यवान्, ( अभिशस्तीः अप अधमत् ) आक्रामक हिंसकों के आक्रमणों को परे कर देता है, उनको संतप्त करता है, ( अथ ) और वह ( द्युम्नी अभवत् ) यशस्वी, ऐश्वर्यवान् होजाता है। हे (बृहद्-भानो) महान् तेजस्विन् ! हे (मरुद्-गण) बलवान् गणों के स्वामिन् ! (देवाः) विजयेच्छुक, दानशील जन ( ते सख्याय येमिरे ) तेरे सख्यभाव प्राप्त करने के लिये अपने को नियम में बांधते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    नृमेधपुरुमेधावृषी॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ७ बृहती। ३ निचृद् बृहती। २ पादनिचृत् पंक्तिः। ४ विराट् पंक्तिः। ५ विरानुष्टुप्। ६ निचृदनुष्टुप्॥ पडृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    अशस्तिहा - द्युम्नी' इन्द्र

    पदार्थ

    [१] (अशस्तिहा) = सब अप्रशस्त भावों का विनाश करनेवाला (इन्द्रः) = वह शत्रुसंहारक प्रभु (अभिशस्तीः) = शत्रुकृत हिंसनों को (अप अधमत्) = हमारे से सुदूर विनष्ट करता है और (अथ) = अब वह प्रभु (द्युम्नी आभवत्) = हमारे लिये सर्वतः ज्ञान की ज्योतियोंवाला होता है। इन ज्ञानज्योतियों से प्रभु हमारे जीवन को उज्ज्वल कर देते हैं। [२] हे (बृहद्मानो) = महान् दीप्तिवाले ! (मरुद्गण) = मरुतों के-प्राणों के गणोंवाले, अर्थात् प्राणसमूह को प्राप्त करानेवाले (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (देवा:) = देववृत्ति के पुरुष (ते सख्याय) = आपकी मित्रता के लिये (येमिरे) = अपने जीवन को संयमवाला बनाते हैं। प्राणसाधना व (स्वाध्याय) = द्वारा ज्ञानप्राप्ति ही संयम का साधन बनती हैं और हमें प्रभु की मित्रता का पात्र बनाती हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु हमें काम-क्रोध आदि शत्रुओं के हिंसन से बचाते हैं और ज्ञान ज्योति से हमारे जीवन को दीप्त करते हैं। हमें चाहिए कि प्राणापान व स्वाध्याय द्वारा संयत जीवनवाले बनकर प्रभु की मित्रता के पात्र बनें।

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