ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 89/ मन्त्र 5
ऋषिः - नृमेधपुरुमेधौ
देवता - इन्द्र:
छन्दः - विराडनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
यज्जाय॑था अपूर्व्य॒ मघ॑वन्वृत्र॒हत्या॑य । तत्पृ॑थि॒वीम॑प्रथय॒स्तद॑स्तभ्ना उ॒त द्याम् ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । जाय॑थ । अ॒पू॒र्व्य॒ । मघ॑ऽवन् । वृ॒त्र॒ऽहत्या॑य । तत् । पृ॒थि॒वीम् । अ॒प्र॒थ॒यः॒ । तत् । अ॒स्त॒भ्नाः॒ । उ॒त । द्याम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
यज्जायथा अपूर्व्य मघवन्वृत्रहत्याय । तत्पृथिवीमप्रथयस्तदस्तभ्ना उत द्याम् ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । जायथ । अपूर्व्य । मघऽवन् । वृत्रऽहत्याय । तत् । पृथिवीम् । अप्रथयः । तत् । अस्तभ्नाः । उत । द्याम् ॥ ८.८९.५
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 89; मन्त्र » 5
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 12; मन्त्र » 5
Acknowledgment
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 12; मन्त्र » 5
Acknowledgment
भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
O lord of glory, Indra, matchless without precedent, when you rise for the elimination of darkness, then you manifest the wide space and plan the heaven, earth and sky in their place in the cosmic order.
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वरच हा दिव्य पदार्थ आहे जो प्रथमच प्रकट असतो. पृथ्वी इत्यादी अप्रकाशित व द्यूलोकात स्थित प्रकाशित दोन्ही प्रकारच्या लोकांची रचना करणारा तोच परमेश्वर आहे. ॥५॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे (अपूर्व्य) अपूर्वगुणी एवं सर्वप्रथम (मघवन्) सम्पदा के स्वामी! आप (यत्) जब (वृत्रहत्याय) विघ्नों के निवारण हेतु (अजायथाः) प्रकट हुए थे (तत्) भी (पृथिवीम्) इस भूमि को (अप्रथयः) विस्तृत करके धरती को बनाया (उत) और (द्याम्) निराधार से प्रतीत होते अन्तरिक्ष एवं दूसरे प्रकाशित लोकों को (अस्तभ्ना) थामा; आप उनके आधार बने॥५॥
भावार्थ
प्रभु ही वह दिव्य पदार्थ है जो सबके पूर्व प्रकटा है; पृथिवी आदि स्वतः अप्रकाशित तथा द्युलोक स्थित स्वतः प्रकाशित--दोनों प्रकार के लोकों की रचना करने वाला परमेश्वर ही है।॥५॥
विषय
इन्द्र प्रभु की स्तुति।
भावार्थ
हे ( मघवन् ) तेजोमय ! ऐश्वर्यवन् ! हे ( अपूर्व्य ) सबसे पूर्व विद्यमान ! ( यत् ) जो तू ( वृत्र-हत्याय ) बढ़ते शत्रुवत् अज्ञान के नाश करने के लिये ( अभि प्र जायथाः ) समर्थ होता है, ( तत् ) वह तू ( पृथिवीम् अप्रथयः ) पृथिवी को विस्तृत करता है, ( उत ) और ( द्याम् अस्तभ्नाः ) आकाश वा सूर्य को दृढ़ वा स्थिर करता है। उसी प्रकार परमेश्वर जब प्रकृति के सलिलमय, तमोमय परमाणु रूप को आघात करता है उससे ही यह भूमि बनती और सूर्य आदि लोक भी उसी के बल से स्थिर हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
नृमेधपुरुमेधावृषी॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ७ बृहती। ३ निचृद् बृहती। २ पादनिचृत् पंक्तिः। ४ विराट् पंक्तिः। ५ विरानुष्टुप्। ६ निचृदनुष्टुप्॥ पडृचं सूक्तम्॥
विषय
पृथिवी प्रथन व द्युलोक स्तम्भन
पदार्थ
[१] हे (अपूर्व्य) = सबसे पूर्व विद्यमान - स्वतो व्यतिरिक्त पूर्व्य से रहित (मघवन्) = ऐश्वर्यशालिन् प्रभो ! (यत्) = जब (जायथाः) = आपका हमारे हृदयों में प्रादुर्भाव होता है, तो (वृत्रहत्याय) = यह प्रादुर्भाव वासना के विनाश के लिये कारण बनता है। आपका प्रादुर्भाव होते ही ज्ञान के प्रकाश में वासनान्धकार का विलय हो जाता है। [२] (तत्) = तब आप (पृथिवीम्) = इस शरीररूप पृथिवी का (अप्रथय:) = विस्तार करते हैं। (उत) = और (द्याम्) = मस्तिष्करूप द्युलोक को (अस्तभ्नाः) = थामते हैं। आपका प्रादुर्भाव वासना को विनष्ट करके शरीर की शक्तियों का विस्तार करता है और ज्ञान ज्योति को दीप्त करता है।
भावार्थ
भावार्थ- हृदयों में प्रभु का प्रादुर्भाव होते ही वासना का दहन हो जाता है इससे शरीर में रेत कणों का रक्षण होकर शक्तियों का विस्तार होता है और ज्ञान का दीपन होता है।
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal