Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 89 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6 7
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 89/ मन्त्र 6
    ऋषिः - नृमेधपुरुमेधौ देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    तत्ते॑ य॒ज्ञो अ॑जायत॒ तद॒र्क उ॒त हस्कृ॑तिः । तद्विश्व॑मभि॒भूर॑सि॒ यज्जा॒तं यच्च॒ जन्त्व॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तत् । ते॒ । य॒ज्ञः । अ॒जा॒य॒त॒ । तत् । अ॒र्कः । उ॒त । हस्कृ॑तिः । तत् । विश्व॑म् । अ॒भि॒ऽभूः । अ॒सि॒ । यत् । जा॒तम् । यत् । च॒ । जन्त्व॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तत्ते यज्ञो अजायत तदर्क उत हस्कृतिः । तद्विश्वमभिभूरसि यज्जातं यच्च जन्त्वम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तत् । ते । यज्ञः । अजायत । तत् । अर्कः । उत । हस्कृतिः । तत् । विश्वम् । अभिऽभूः । असि । यत् । जातम् । यत् । च । जन्त्वम् ॥ ८.८९.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 89; मन्त्र » 6
    अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 12; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    And then proceeds the cosmic yajna, formation of light, sun and the joyous agni and vayu. And thus you remain and rule as the supreme over what has come into being and what is coming into being.

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    यापूर्वीच्या मंत्रात हे दर्शविलेले आहे, की परमेश्वरापूर्वी कोणीही काहीही नव्हते. पृथ्वी, सूर्य इत्यादी लोक त्यानेच निर्माण केलेले आहेत. नंतर जगात सत्क्रिया व अंध:कार दूर करण्याची प्रक्रिया व साधनही त्याच्यापासूनच प्रचलित झालेले आहेत. तो जगातील सर्वोत्कृष्ट शक्ती आहे. ॥६॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (तत्) तभी (ते) तुझसे (यज्ञः) यजन क्रिया--दान आदानपूर्वक सत्कर्मकरण--(अजायत) उत्पन्न हुई (आरम्भ हुई)(तत्) तभी (हस्कृतिः) प्रकाश क्रिया एवं साथ ही (अर्कः) अग्नि उत्पन्न हुई जिसके नाम [धर्म, शुक्र, ज्योति और सूर्य हैं] (तत् यत् जातम्) वह जो कुछ उत्पन्न हुआ है, (च यत्) और जो कुछ (जन्त्वम्) उत्पन्न होगा उस (विश्वम्) सबका तू (अभिभूः असि) अभिभवकर्ता, सर्वाधिक उत्कृष्ट है॥६॥

    भावार्थ

    इससे पहले मन्त्र में बताया गया है कि प्रभु से पूर्व कोई भी कुछ भी नहीं था; पृथिवी, सूर्य इत्यादि लोक उसी ने रचे हैं। फिर संसार में सत्क्रियाएं एवं अन्धकार को दूर करने की प्रक्रिया व साधन भी उससे ही प्रचलित हुए--वह संसार में सर्वाधिक उत्कृष्ट शक्ति है॥६॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    इन्द्र प्रभु की स्तुति।

    भावार्थ

    तब ही हे प्रभो ! (ते यज्ञः अजायत) तेरा महान् यज्ञ होता है ( तत् ते अर्कः ) वही तेरा महान् स्तुति योग्य ज्ञान है। ( उत हस्कृतिः ) वही तेरा ब्राह्म दिनवत् हर्ष का विलास है। ( तत् ) वह तू ( विश्वम् अभि भूः असि ) समस्त विश्व का उत्पादक है ( यत् जातं यत् जन्त्वम् ) जो उत्पन्न हुआ और जो उत्पन्न होगा उस सबका उत्पादक तू ही है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    नृमेधपुरुमेधावृषी॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ७ बृहती। ३ निचृद् बृहती। २ पादनिचृत् पंक्तिः। ४ विराट् पंक्तिः। ५ विरानुष्टुप्। ६ निचृदनुष्टुप्॥ पडृचं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    यज्ञ + अर्क-वासनाविनाश

    पदार्थ

    [१] हे प्रभो! गतमन्त्र के अनुसार हृदयों में आपके प्रादुर्भाव होने पर (तत्) = तब (ते) = आपका (यज्ञः) = पूजन [यज्ञ=देवपूजा] (अजायत) = हमारे जीवनों में प्रादुर्भूत होता है। हम आपकी पूजा करनेवाले बनते हैं (उत) = और (तत्) = तब (हस्कृतिः) = हास - प्रकाश व हर्ष को करनेवाला (अर्क:) = आपका स्तवन प्रादुर्भूत होता है। हम आपके स्तवन में प्रवृत्त होते हैं। यह स्तवन हमारे अद्भुत हर्ष का साधन बनता है। [२] (तत्) = तब आप (यत् जातम्) = जो क्रोध आदि शत्रु हमारे यहाँ उत्पन्न हो चुके हैं- दृढमूल से बन गये हैं यच्च और जो (जन्त्वम्) = पैदा होने की तैयारी में हैं - अंकुरित हो रहे हैं (तद् विश्वम्) = उन सब को आप (अभिभूः असि) = अभिभूत करनेवाले होते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- हृदयों में प्रभु का प्रादुर्भाव होते ही [१] जीवन यज्ञमय बन जाता है, [२] हम प्रभुस्तवन में हर्ष का अनुभव करने लगते हैं, [३] सब उत्पन्न हो चुकी व हो रही क्रोध आदि की वासनाओं को अभिभूत कर लेते हैं।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top