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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 9 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 9/ मन्त्र 18
    ऋषिः - शशकर्णः काण्वः देवता - अश्विनौ छन्दः - विराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    यदु॑षो॒ यासि॑ भा॒नुना॒ सं सूर्ये॑ण रोचसे । आ हा॒यम॒श्विनो॒ रथो॑ व॒र्तिर्या॑ति नृ॒पाय्य॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । उ॒षः॒ । यासि॑ । भा॒नुना॑ । सम् । सूर्ये॑ण । रो॒च॒से॒ । आ । ह॒ । अ॒यम् । अ॒श्विनोः॑ । रथः॑ । व॒र्तिः । या॒ति॒ । नृ॒ऽपाय्य॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदुषो यासि भानुना सं सूर्येण रोचसे । आ हायमश्विनो रथो वर्तिर्याति नृपाय्यम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । उषः । यासि । भानुना । सम् । सूर्येण । रोचसे । आ । ह । अयम् । अश्विनोः । रथः । वर्तिः । याति । नृऽपाय्यम् ॥ ८.९.१८

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 9; मन्त्र » 18
    अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 33; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    पदार्थः

    (उषः) हे उषः (यत्) यदा (भानुना) किरणेन (यासि) मिलसि (सूर्येण, संरोचसे) सूर्येण सह च दीप्यसे तदा (अश्विनोः) तयोः (नृपाय्यम्, अयं, रथः) शूररक्षितयानम् (वर्त्तिः, ह, आयाति) गृहं प्रति गच्छति ॥१८॥

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    विषयः

    प्रभातवर्णनमाह ।

    पदार्थः

    हे उषः=हे प्रभातदेवि ! यदा त्वम् । भानुना=प्रकाशेन सह । यासि=व्रजसि । तदा त्वं सूर्य्येण सह । संरोचसे=संदीप्यसे । तदैव । अस्माकं माननीययोरश्विनो राज्ञोरयं रथः । नृपाय्यम्=नरो नराः पालनीया यत्र तादृशं वर्तिर्गृहं गृहं प्रति आयाति ॥१८ ॥

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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (उषः) हे उषादेवि ! (यत्) जब आप (भानुना, यासि) सूर्यकिरणों के साथ मिलती हो (सूर्येण, संरोचसे) और सूर्य के साथ दीप्त=लीन हो जाती हो, तब (नृपाय्यम्) शूरों से रक्षित (अयम्, अश्विनोः, रथः) यह सेनापति तथा सभाध्यक्ष का रथ (वर्त्तिः, ह, याति) अपने घर को चला जाता है ॥१८॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में यह वर्णन किया है कि सभाध्यक्ष तथा सेनाध्यक्ष उषाकाल से अपने रथों पर चढ़कर राष्ट्र का प्रबन्ध करते हुए सूर्योदय में घर को लौटते हैं, उनका प्रबन्ध राष्ट्र के लिये प्रशंसित होता है। इसी प्रकार जो पुरुष उषाकाल में जागकर अपने ऐहिक और पारलौकिक कार्यों को विधिवत् करते हैं, वे अपने मनोरथ में अवश्य कृतकार्य्य होते हैं ॥१८॥

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    विषय

    प्रभात का वर्णन करते हैं ।

    पदार्थ

    (उषः) हे उषा देवि ! (यदा) जब-२ तू (भानुना) प्रकाश के साथ (यासि) गमन करती है, तब-२ तू (सूर्य्येण) सूर्य्य के साथ (सं+रोचसे) सम्यक् दीप्यमान होती है । उसी काल में हमारे (अश्विनोः) माननीय राजा और अमात्यादि वर्गों का (अयम्+रथः) यह रथ (नृपाप्यम्) पालनीय मनुष्यों से युक्त (वर्तिः) गृह-गृह में (आ+याति) आता है ॥१८ ॥

    भावार्थ

    प्रातःकाल उठकर मन्त्रिदलों के साथ राजा प्रजा के गृह पर जाकर मङ्गल-समाचार पूछे ॥१८ ॥

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    विषय

    उत्तम देवी विदुषी के गुण और कर्तव्यों का वर्णन ।

    भावार्थ

    हे ( उषः ) कान्तिमति ! विदुषि ! तू जब प्राभातिक सूर्य की दीप्ति के समान ( भानुना ) प्रकाश के साथ ( यासि ) गमन करती है और ( सूर्येण ) सूर्यवत् कान्तिमान् तेजस्वी पुरुष से ( सं रोचसे ) युक्त होकर अधिक अच्छी लगती है तभी ( अश्विनो: ) आप दोनों जितेन्द्रिय वर वधू, पति पत्नी का ( अयम् ) यह ( रथः ) रमणीय सुन्दर गृहस्थ रूप एक रथ, ( नृपाय्यं वर्त्तिः याति ) मनुष्यमात्र को पालन करने वाले गृह अर्थात् प्रजापति पद या मार्ग की ओर गति करता है। इसी प्रकार ( उषा ) शत्रु को दग्ध करने और राष्ट्र को वश करने वाली सेना जब सूर्यवत् तेजस्वी सेनापति को वरती है तो उनका वेगवान् रथ राष्ट्रवासी मनुष्यों के पालन के मार्ग पर गमन करे । तब उनका धर्म प्रजापालन है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शशकर्ण: काण्व ऋषिः ॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः—१, ४, ६ बृहती। १४, १५ निचृद् बृहती। २, २० गायत्री। ३, २१ निचृद् गायत्री। ११ त्रिपाद् विराड् गायत्री। ५ उष्णिक् ककुष् । ७, ८, १७, १९ अनुष्टुप् ९ पाद—निचृदनुष्टुप्। १३ निचृदनुष्टुप्। १६ आर्ची अनुष्टुप्। १८ वराडनुष्टुप् । १० आर्षी निचृत् पंक्तिः। १२ जगती॥ एकविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    नृपाय्यं वर्तिः

    पदार्थ

    [१] हे (उषः) = उषाकाल की देवि ! (यत्) = जब (भानुना) = दीप्ति के साथ (यासि) = तू प्राप्त होती है और (सूर्येण संरोचसे) = सूर्य के साथ सम्यक् दीप्त हो उठती है तो (ह) = निश्चय से (अयम्) = यह (अश्विनोः) = प्राणापान का (रथ:) = शरीररूप रथ वह शरीर जिसमें प्राणसाधना प्रवृत्त हुई है, (नृपाय्यं वर्तिः) = मनुष्यों की रक्षा करनेवाले मार्ग पर (आयाति) = गतिवाला होता है। अर्थात् हम उसी मार्ग पर चलना प्रारम्भ करते हैं जो हमें सदा सुरक्षित रखता है, जिस मार्ग पर चलते हुए हम विषयों में फँसकर विनष्ट नहीं हो जाते। [२] 'अश्विनोः रथः ' शब्द इस भाव को सुव्यक्त कर रहे हैं कि हमें प्रातः प्रबुद्ध होकर प्राणसाधना में अवश्य प्रवृत्त होना है। यह साधना ही हमारे जीवन में मलिनताओं को न आने देगी। प्राणसाधक सदा 'नृपाय्य वर्ति' से शरीर रथ को ले चलता है।

    भावार्थ

    भावार्थ - उषा के होते ही हम प्रबुद्ध होकर प्राणसाधना के लिये उद्यत हों। सदा उस मार्ग का आक्रमण करें, जो मनुष्यों का रक्षण करनेवाला है।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O dawn, harbinger of a new day, when you rise with the first sun-rays and then join the sun and shine together with it, then the Ashvins’ chariot rolls on on its usual course of the day which preserves and promotes humanity in life and leads it to advancement.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात म्हटले आहे, की सभाध्यक्ष व सेनाध्यक्ष उष:काली आपल्या रथावर चढून राष्ट्राचा प्रबंध करून सूर्यास्ताच्या वेळी घरी परत येतात. त्यांचा प्रबंध राष्ट्रासाठी प्रशंसित असतो. याचप्रकारे जे पुरुष उष:काली जागृत होऊन आपले ऐहिक व पारलौकिक कार्य विधिवत् पार पाडतात त्यांचे मनोरथ अवश्य पूर्ण होतात. ॥१८॥

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    हिंगलिश (1)

    Subject

    Performance monitoring

    Word Meaning

    सूर्योदय से जब दिवस का प्रकट होता है, प्रात: काल से ही निश्चय से सब प्रजा और राज्ञकर्मचारियों के अपने अपने राष्ट्र के खान पान सुरक्षा के लिए सब मार्गों पर यातायात ,उद्योग व्यापार इत्यादि कार्य ठीक से चल पड़ने चाहिएं | तब इन सब भिन्न भिन्न वर्गों की ठीक गति विधियों के निरीक्षण का काम भी करना होता है | As the day breaks to ensure that all business and production activities for sustaining the nation start their operation .There should be a system to monitor that all these activities are working properly.

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