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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 94 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 94/ मन्त्र 5
    ऋषिः - बिन्दुः पूतदक्षो वा देवता - मरूतः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    पिब॑न्ति मि॒त्रो अ॑र्य॒मा तना॑ पू॒तस्य॒ वरु॑णः । त्रि॒ष॒ध॒स्थस्य॒ जाव॑तः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पिब॑न्ति । मि॒त्रः । अ॒र्य॒मा । तना॑ । पू॒तस्य॑ । वरु॑णः । त्रि॒ऽस॒ध॒स्थस्य॑ । जाव॑तः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पिबन्ति मित्रो अर्यमा तना पूतस्य वरुणः । त्रिषधस्थस्य जावतः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पिबन्ति । मित्रः । अर्यमा । तना । पूतस्य । वरुणः । त्रिऽसधस्थस्य । जावतः ॥ ८.९४.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 94; मन्त्र » 5
    अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 28; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Mitra, men of universal love, Aryama, men of adventure on the paths of rectitude, and Varuna, men of judgement and right choice, continuously drink of this soma created and sanctified by the procreative power of divinity pervading in the three regions of the universe, heaven, earth and the sky.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    विविध पदार्थांच्या व्यवहाराचे ज्ञान प्राप्त करणारा मनुष्यच मित्रता, दानशीलता व अत्यंत भेदभावरहितता अर्थात् न्यायकारिता इत्यादी गुणांनी युक्त होऊ शकतो. ॥५॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (मित्रः) सबका सखा, (अर्यमा) दानशील, (जावतः) स्व विस्तार किये हुए (त्रिषधस्थस्य) तीनों लोकों में पक्षपातरहित अतएव (पूतस्य) अपवित्रतारहित का (तना) पुत्र (वरुणः) न्यायकारी--ये सब पदार्थों के व्यवहारज्ञान को (पिबन्ति) ग्रहण करते हैं॥५॥

    भावार्थ

    भाँति-भाँति के पदार्थों के व्यवहार का ज्ञान प्राप्त करने वाला मानव ही मित्रता, दानशीलता तथा अतिशय पक्षपातरहितता या न्यायकारिता आदि गुणों से सम्पन्न हो सकता है॥५॥

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    विषय

    उन के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    ( तना पूतस्य ) विस्तृत ऐश्वर्य वा यज्ञ से पवित्र, ( त्रि-सधस्थस्य ) तीनों स्थानों पर विराजमान ( जावतः ) जाया के तुल्य प्रजा या भूमि से युक्त राष्ट्र का ( मित्रः ) स्नेही जन, ( अर्यमा ) शत्रुओं का नियन्ता और ( वरुणः ) संकटनिवारक जन संकटनिवारक जन ( पिबन्ति ) उपभोग और पालन करते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    बिन्दुः पूतदक्षो वा ऋषिः॥ मरुतो देवता॥ छन्दः—१, २, ८ विराड् गायत्री। ३, ५, ७, ९ गायत्री। ४, ६, १०—१२ निचृद् गायत्री॥

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    विषय

    मित्र अर्यमा वरुण

    पदार्थ

    [५] (मित्रः) = सब पापों से अपने को बचानेवाला स्नेहशील [प्रमीते: चायते, मिद् स्नेहने], (अर्यमा) = [अरीन् यच्छति] काम-क्रोध-लोभ को वश में करनेवाला और (वरुणः) = द्वेष का निवारण करनेवाले पुरुष इस (पूतस्य) = वासना- विनाश के द्वारा पवित्र सोम का (तना) = शक्तियों के विस्तार के हेतु से (पिबन्ति) = पान करते हैं। सोमरक्षण के लिये 'मित्र, अर्यमा व वरुण' बनना चाहिये। सुरक्षित सोम शक्तियों के विस्तार का हेतु बनता है। [२] ये मित्र, वरुण व अर्यमा उस सोम का पान करते हैं जो (त्रिषधस्थस्य) = शरीर, मन व बुद्धि रूप तीनों स्थानों में समान रूप से स्थित होता है । शरीर को यह दृढ़ बनाता है, मन को प्रसन्न व मस्तिष्क को दीप्त बनाता है। इस प्रकार इस सोम की स्थिति इन तीनों स्थानों में है। यह सोम (जावतः) = विकासवाला है, सब शक्तियों के विकास का कारण बनता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम 'मित्र, वरुण व अर्यमा' बनकर सोम का रक्षण करते हैं। यह सोम हमारे शरीर, मन व मस्तिष्क तीनों को समानरूप से उन्नत करता है। यह हमारी शक्तियों के विकास का हेतु होता है।

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