ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 95/ मन्त्र 3
पिबा॒ सोमं॒ मदा॑य॒ कमिन्द्र॑ श्ये॒नाभृ॑तं सु॒तम् । त्वं हि शश्व॑तीनां॒ पती॒ राजा॑ वि॒शामसि॑ ॥
स्वर सहित पद पाठपिब॑ । सोम॑म् । मदा॑य । कम् । इन्द्र॑ । श्ये॒नऽआ॑भृतम् । सु॒तम् । त्वम् । हि । शश्व॑तीनाम् । पतिः॑ । राजा॑ । वि॒शाम् । असि॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
पिबा सोमं मदाय कमिन्द्र श्येनाभृतं सुतम् । त्वं हि शश्वतीनां पती राजा विशामसि ॥
स्वर रहित पद पाठपिब । सोमम् । मदाय । कम् । इन्द्र । श्येनऽआभृतम् । सुतम् । त्वम् । हि । शश्वतीनाम् । पतिः । राजा । विशाम् । असि ॥ ८.९५.३
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 95; मन्त्र » 3
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 30; मन्त्र » 3
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अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 30; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, enlightened spirit of the universe, enjoy the soothing and illuminating soma of joyous knowledge distilled from life and living literature by dynamic and adorable sages of enlightenment. You are the master, protector, sustainer and ruler of all the universal and eternal generations of the people.
मराठी (1)
भावार्थ
साधक, विद्या, बुद्धी, बल व धन इत्यादींनी युक्त होऊ इच्छितो या प्रयोजनाने त्याने सृष्टीला जास्तीत जास्त जाणून पदार्थाचा योग्य उपयोग करावा. हे आत्म्याचे सोमपान आहे. ॥३॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे (इन्द्र) ऐश्वर्य इच्छुक मेरे आत्मा! तू (सुतम्) विद्या सुशिक्षा आदि से सुसम्पादित (श्येनाभृतम्) प्रशंसनीय गति तथा पराक्रम से संयुक्त श्येन पक्षी के जैसे प्रशंसनीय आचरण तथा सामर्थ्यवाले इन्द्रिय रूप अश्वों से लाकर दिये हुए (कम्) सुख के हेतुभूत (सोमम्) ऐश्वर्यकारक पदार्थ-बोध का (मदाय) अपनी तृप्ति हेतु (आ पिब) उपभोग कर। (त्वं हि) निश्चय ही तू तो (विशाम्) [विद्योद्यम, बुद्धि, धन-धान्यादि बलयुक्त] मनुष्यों में (राजा) शुभ गुणों से प्रकाशित अध्यक्षवत् विद्यमान तथा (शश्वतीनाम्) उन प्रवाहरूप से अनादि प्रजा का (पतिः) पति है॥३॥
भावार्थ
साधक जन विद्या, बुद्धि, बल एवं धन आदि से युक्त होना चाहता है। इसलिए उसे चाहिये कि सृष्टि को अधिक से अधिक जानकर पदार्थों का समुचित प्रयोग करे। यही आत्मा का सोमपान है।॥३॥
विषय
परमेश्वर के गुणों का स्तवन। पक्षान्तर में राजा के कर्तव्य।
भावार्थ
हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! ( त्वं ) तू ( हि ) निश्चय से, ( शश्वतीनां विशाम् ) बहुत सी प्रजाओं का ( पतिः असि ) पालक, स्वामी है। तू ( मदाय ) सुख, तृप्ति और आनन्द के लिये ( श्येनाभृतं सुतं ) श्येन के समान शत्रु पर आक्रमण करने वाले वा प्रशंसनीय आचार चरित्रवान् पुरुषों से प्राप्त किये हुए धन वा प्रदत्त सुखजनक, ( सोमं ) ज्ञान वा ऐश्वर्य को ( पिब ) प्राप्त कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
तिरश्ची ऋषिः॥ इन्द्रा देवता॥ छन्द:—१—४, ६, ७ विराडनुष्टुप्। ५, ९ अनुष्टुप्। ८ निचृदनुष्टुप्॥
विषय
'पति व राजा' प्रभु
पदार्थ
[१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (सोमं पिब) = सोम का हमारे शरीर में ही आप रक्षण करिये। उस सोम का जो (कम्) = सुख को देनेवाला है। श्(येनाभृतम्) = [ श्यैङ् गतौ ] गतिशील पुरुष के द्वारा धारण किया जाता है। (सुतम्) = शरीर में उत्पादित इस सोम को आप ही रक्षित करिये। रक्षित हुआ हुआ यह सोम (मदाय) = जीवन में उल्लास के लिये होता है। [२] हे प्रभो ! (त्वं हि) = आप ही (शश्वतीनां विशाम्) = इन सनातन काल से आ रही अथवा गतिशील प्रजाओं के (पतिः) = रक्षक व (राजा) = शासक असि हैं। आप ही सब प्रजाओं के जीवनों को कर्मानुसार नियन्त्रित करते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- हे प्रभो आप ही रक्षक व शासक हैं। आप हमारे जीवनों में सोम का रक्षण करते हुए उल्लास को प्राप्त करानेवाले हों।
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