ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 100/ मन्त्र 3
ऋषिः - रेभसूनू काश्यपौ
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - विराडनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
त्वं धियं॑ मनो॒युजं॑ सृ॒जा वृ॒ष्टिं न त॑न्य॒तुः । त्वं वसू॑नि॒ पार्थि॑वा दि॒व्या च॑ सोम पुष्यसि ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । धिय॑म् । म॒नः॒ऽयुज॑म् । सृ॒ज । वृ॒ष्टिम् । न । त॒न्य॒तुः । त्वम् । वसू॑नि । पार्थि॑वा । दि॒व्या । च॒ । सो॒म॒ । पु॒ष्य॒सि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वं धियं मनोयुजं सृजा वृष्टिं न तन्यतुः । त्वं वसूनि पार्थिवा दिव्या च सोम पुष्यसि ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम् । धियम् । मनःऽयुजम् । सृज । वृष्टिम् । न । तन्यतुः । त्वम् । वसूनि । पार्थिवा । दिव्या । च । सोम । पुष्यसि ॥ ९.१००.३
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 100; मन्त्र » 3
अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 27; मन्त्र » 3
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अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 27; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
हे परमात्मन् ! (त्वं) भवान् (मनोयुजं) मनःस्थापकं (धियं) कर्मयोगम् (सृज) उत्पादयतु (न) यथा (तन्यतुः) मेघः (वृष्टिं) वर्षं तनोति एवं (सोम) हे सर्वोत्पादक ! (त्वं) भवान् (पार्थिवा) पृथिवीसम्बन्धीनि (दिव्या) द्युलोकसम्बन्धीनि च (वसूनि) धनानि (पुष्यसि) मह्यं भरतु ॥३॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे परमात्मन् ! (त्वं) तुम (मनोयुजं) मन को स्थिर करनेवाले (धियं) कर्म्मयोग को (सृज) उत्पन्न करो (न) जैसे कि (तन्यतुः) मेघ (वृष्टिं) वृष्टि का विस्तार करता है, इसी प्रकार (सोम) हे सर्वोत्पादक परमात्मन् ! (त्वं) तुम (पार्थिवा) पृथिवीसम्बन्धी (च) और (दिव्या) द्युलोकसम्बन्धी (वसूनि) धनों से (पुष्यसि) हमको पुष्ट करो ॥३॥
भावार्थ
कर्मयोगी पुरुष ही मन के स्थैर्य को प्राप्त करके विविध ऐश्वर्य का स्वामी बनता है ॥३॥
विषय
प्रभु से प्रार्थनाएं।
भावार्थ
(तन्यतुः वृष्टिं न) गर्जता मेघ जिस प्रकार वृष्टि प्रदान करता है उसी प्रकार (त्वं) तू (मनो युजं धियं सृज) मन से वा ज्ञान से योग करने वाले, मन और ज्ञान को प्रेरित करने वाले (धियं) बुद्धि कर्ता का प्रदान कर। हे (सोम) प्रभो ! सर्वोत्पादक ! सर्वप्रेरक(त्वं) तू ही (पार्थिवा दिव्या च) भूमि और आकाश के समस्त (वसूनि) ऐश्वर्यों को (पुष्यसि) खूब २ देता और बढ़ाता है। अतः तू (मनो युजं धियं वृष्टिं सृज) तू मन से योग करने वाले, दुःखोच्छेदक कर्म वा बुद्धि प्रदान कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
रभसूनू काश्यपौ ऋषी ॥ पवमानः सोमो देवता ॥ छन्दः- १, २, ४,७,९ निचृदनुष्टुप्। ३ विराडनुष्टुप्। ५, ६, ८ अनुष्टुप्॥ नवर्चं सूक्तम्॥
विषय
मनोयुजं धियम्
पदार्थ
हे (सोम) = वीर्य ! शरीर में सुरक्षित हुआ हुआ (त्वम्) = तू (मनोयुजम्) = मन के योग वाली (धियम्) = बुद्धि को सृज उत्पन्न कर, (न) = जैसे कि (तन्यतुः) = गर्जने वाला मेघ (वृष्टिम्) = वृष्टि को पैदा करता है। सुरक्षित सोम चित्तवृत्ति की शान्ति का कारण बनता है। इस शान्त मन से युक्त बुद्धि अपने व्यापार को उत्तमता से कर पाती है। हे सोम ! (त्वम्) = तू ही (पार्थिवा वसूनि) = इस शरीर रूप पृथिवी से सम्बद्ध शक्ति रूप वसुओं को (च) = तथा (दिव्या) = मस्तिष्क रूप द्युलोक से सम्बद्ध ज्ञानधनों को (पुष्यसि) = पुष्ट करता है।
भावार्थ
भावार्थ- सुरक्षित सोम पार्थिव व दिव्य वसुओं को प्राप्त करानेवाला होता है ।
इंग्लिश (1)
Meaning
O Soma, like the rain showers of the clouds, pray create, inspire and augment the vision, intelligence, understanding and will which may stabilise the mind in the state of peace and constancy. Indeed, you create and augment the wealth, honour and excellence of both earthly and heavenly order.
मराठी (1)
भावार्थ
कर्मयोगी पुरुषच मनाचे स्थैर्य प्राप्त करून विविध ऐश्वर्याचा स्वामी बनतो. ॥३॥
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