ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 100/ मन्त्र 5
ऋषिः - रेभसूनू काश्यपौ
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
क्रत्वे॒ दक्षा॑य नः कवे॒ पव॑स्व सोम॒ धार॑या । इन्द्रा॑य॒ पात॑वे सु॒तो मि॒त्राय॒ वरु॑णाय च ॥
स्वर सहित पद पाठक्रत्वे॑ । दक्षा॑य । नः॒ । क॒वे॒ । पव॑स्व । सो॒म॒ । धार॑या । इन्द्रा॑य । पात॑वे । सु॒तः । मि॒त्राय॑ । वरु॑णाय । च॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
क्रत्वे दक्षाय नः कवे पवस्व सोम धारया । इन्द्राय पातवे सुतो मित्राय वरुणाय च ॥
स्वर रहित पद पाठक्रत्वे । दक्षाय । नः । कवे । पवस्व । सोम । धारया । इन्द्राय । पातवे । सुतः । मित्राय । वरुणाय । च ॥ ९.१००.५
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 100; मन्त्र » 5
अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 27; मन्त्र » 5
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अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 27; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(कवे) हे सर्वज्ञपरमात्मन् ! (नः) अस्माकं (क्रत्वे) कर्मयोगाय (दक्षाय) ज्ञानयोगाय च (पवस्व) मां पावयतु (सोम) हे सर्वोत्पादक ! (धारया) स्वानन्दवृष्ट्या च पवस्व (च) तथा (इन्द्राय) कर्मयोगिनः (पातवे) तृप्त्यै (मित्राय, वरुणाय) अध्यापकस्य उपदेष्टुश्च तृप्तये (सुतः) उपास्यते भवान् ॥५॥
हिन्दी (4)
पदार्थ
(कवे) हे सर्वज्ञ परमात्मन् ! (नः) हमारे (क्रत्वे) कर्म्मयोग के लिये (पवस्व) आप हमको पवित्र करें, (सोम) हे सर्वोत्पादक परमात्मन् ! (धारया) आप अपनी आनन्दमय वृष्टि से हमको पवित्र करें (च) और (इन्द्राय) कर्म्मयोगी की (पातवे) तृप्ति के लिये (मित्राय) अध्यापक और (वरुणाय) उपदेशक की तृप्ति के लिये आप (सुतः) उपासना किये जाते हो ॥५॥
भावार्थ
परमात्मा का साक्षात्कार कर्मयोगी अध्यापक तथा उपदेशक सबों की तृप्ति करता है ॥५॥
Bhajan
वैदिक मन्त्र
क्रत्वे दक्षाय न: कवे पवस्व सोम धारया।
इन्द्राय पातवे सुतो मित्राय वरुणाय च ।।
ऋ॰ ९.१००.५
वैदिक भजन १११५ वां
राग जोग
गायन समय रात्रि का द्वितीय प्रहर
ताल अद्धा
हे सोम प्रभु तुम सहृदय कवि हो
काव्य तुम्हारा है हृदयाह्लादक
अद्भुत शान्त नवरस धार का
और सृष्टि-सृजन है अनागत
हे सोम.......
काव्य धाराओं में बहते- बहते
हे कवि पहुंचो हृदयों तक
हम हैं तुम्हारे काव्य-पिपासु
आनन्द लहरों के लिए तरसे
आनन्द मिले सोम प्रभुवर !
जिससे मन और हृदय सरसे।।
हे सोम.......
शान्ति की धारा के साथ में बह के
शान्ति से विश्व को सरसाओ
हे मित्र ! मैत्री की धारा संग बह के
विश्व में सुख-शान्ति को बहाओ
भाव बहाओ मधु -मित्रता के
सत्य धर्म के और अहिंसा के।।
हे सोम.......
सत्य की धारा के साथ कभी बह के
सत्य-अहिंसा के भाव जगा दो
कभी दिव्यता की धार में बह के
नहलाओ विश्व को दिव्यता से
बहे ज्ञान कर्म में, बहे यज्ञव्रत में
भाव जगा दो मित्रता के।।
हे सोम.....
सत्य-संकल्प की लहर में बह के
साधक जनों को महर्षि बनाओ
कभी तपस्या की धार में बह के
ज्ञान करा दो तपस्या में
श्रद्धा भक्ति में सात्विक वृत्ति में
रहे साधक सदा ऋत- सत्य में।।
हे सोम..........
हे प्रभु! साधकों के साथ में बह के
उन्हें ज्ञानवान कर्मनिष्ठ बनाओ
दृढ़ संकल्पों से हो जाएं यज्ञशील
कर दो उन्नत उन्हें आत्मबलों से
बहो आत्मा में,बहो प्राणों में(२)
हे सोम प्रभु ! निज दिव्यता से।।
हे सोम ..........
२.१०.२०११
५.२५
शब्दार्थ:-
कवि=क्रान्तदर्शी, संसार-काव्य का कवि
सोम =शान्त
नवरस=९रस)श्रृंगार,हास्य,करुण,रौद्र,वीर भयानक, बीभत्स, अद्भुत और शान्त
सृजन=रचना, उत्पत्ति
अनागत=अज्ञात
पिपासु =प्यासा
मधु मित्रता=मित्रता की मिठास
दिव्यता= महानता
ऋत= सृष्टि के शाश्वत नियम
कर्मनिष्ठ=शुद्ध हृदय से कर्म करने वाला
संकल्प=दृढ़ निश्चय, इरादा
वैदिक मन्त्रों के भजनों की द्वितीय श्रृंखला का १०८ वां वैदिक भजन ।
और प्रारम्भ से क्रमबद्ध अबतक का १११५ वां वैदिक भजन
वैदिक संगीत प्रेमी श्रोताओं को हार्दिक शुभकामनाएं !
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Vyakhya
सोम की विविध धाराएं
हे सोम प्रभु ! तुम कवि हो। कवि स्वयं सहृदय होता है तथा अपने काव्य से सहृदयों को चमत्कृत भी करता है। उसका सहृदय हृदयाह्लादक काव्य श्रृंगार, हास्य, करुण, रौद्र, वीर, भयानक, बीभत्स, अद्भुत और शान्त इन नवों रसों की धारा बहाकर अलौकिक आनन्द की सृष्टि करता रहता है। कभी अपनी काव्य धाराओं के साथ बहता- बहता काव्य पिपासुओं तक पहुंच जाता है।ऐसे ही सोम! तुम भी धारा के साथ बहते- बहते उपासक के हृदय तक पहुंचो। कभी तुम आनन्द की धारा के साथ बैठकर जगत को आनन्द की तरंगिणी से सींचो। कभी शान्ति की धारा के साथ बैठकर विश्व में शान्ति की धारा सरसाओ। कभी मैत्री की धारा के साथ बहकर सर्वत्र मित्रता का सूत्रपात करो। कभी सार्वभौम धर्म की धारा के साथ बैठकर विश्व में दिव्य धर्म की लहर लहराओ। कभी अहिंसा और सत्य की धारा के साथ बैठकर जगती को अहिंसा और सत्य से आप्लावित करो। कभी दिव्यता की धारा के साथ बहकर विश्व को दिव्यता से नहलाओ। कभी ज्ञान और कर्म की धारा के साथ बहकर ज्ञान और कर्म की गंगा में संसार को स्नान कराओ। कभी सत्संकल्प और यज्ञ की धारा में बह कर शिवसंकल्प और यज्ञ की लहरें उठाओ। कभी रिश्वत व की धारा के साथ बहकर साधकों को ऋषि- महर्षि बनाओ। कभी तपस्या की धारा के साथ रहकर लोगों का ध्यान तपस्या में केंद्रित करो। कभी श्रद्धा और आध्यात्मिकता की धारा के साथ बैठकर जनमानस को श्रद्धा और आध्यात्मिकता की तरंगों से तरंगित करो। बहो, बहो, हे सोम प्रभु ! धाराओं के साथ बहो।हे प्रभु ! धाराओं के साथ बैठकर हमें प्रज्ञानवान्, कर्मनिष्ठ, दृढ़ संकल्प अकादमी तथा यज्ञशील बनाओ। सारा विश्व यज्ञ की धुरी पर घूम रहा है। यज्ञ की भावना समाप्त होते ही विश्व भंगुर होकर तितर -बितर हो जाए। हे परमेश ! हमें आत्मबल की धारा में बहा ले चलो। बलहीन का संसार में कोई सहारा नहीं बनता। इसके विपरीत जिसमें आत्म बल है वह बड़ी- से-बड़ी विपत्ति और बाधाओं को पार कर जाता है।
हे रसीले सोम प्रभु! हमने तुम्हें परिस्त्रुत करके तुममें से अनेक धाराएं बहाई हैं। वह धाराएं हमारे आत्मा में पैठें, हमारे मानस में पैठें, हमारे प्राणों में पैठें।
विषय
विद्वान् का राज्य पद पर अभिषेक उसके प्रजा आदि के प्रति कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे (कवे) विद्वन्, क्रान्तदर्शिन् ! हे (सोम) सन्मार्ग में सबको चलाने हारे! तू (क्रत्वे) ज्ञानवान् कर्म करने में समर्थ (दक्षाय) बलवान्, उत्साहसम्पन्न (इन्द्राय) अध्यात्मदर्शी वा ऐश्वर्य से युक्त, ऐश्वर्य-प्रद राज्यपद की रक्षा के लिये (सुतः) अभिषिक्त हो और (मित्राय वरुणाय च पातवे) स्नेही जन और श्रेष्ठजनों के पालन के लिये भी हो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
रभसूनू काश्यपौ ऋषी ॥ पवमानः सोमो देवता ॥ छन्दः - १, २, ४,७,८ निचृदनुष्टुप्। ३ विराडनुष्टुप्। ५, ६, ८ अनुष्टुप्॥ नवर्चं सूक्तम्॥
विषय
क्रत्वे दक्षाय
पदार्थ
हे (कवे) = क्रान्तदर्शिन् बुद्धि को सूक्ष्म बनानेवाले (सोम) = वीर्य ! तू (नः) = हमें क्रत्वे ' शक्ति प्रज्ञान व कर्म' के लिये तथा (दक्षाय) = सब प्रकार की उन्नति के लिये [दक्षू To grow] (धारया) = अपनी धारण शक्ति के साथ (पवस्व) = प्राप्त हो । हे सोम ! तू (सुतः) = उत्पन्न हुआ हुआ (इन्द्राय पातवे) = इन्द्र के लिये जितेन्द्रिय पुरुष के लिये, पीने के योग्य होता है । (मित्राय) = सब के प्रति स्नेह वाले पुरुष के लिये होता है, (च) = और (वरुणाय) = द्वेष का निवारण करनेवाले पुरुष के लिये होता है।
भावार्थ
भावार्थ- सुरक्षित सोम 'शक्ति प्रज्ञान कर्म व वृद्धि' का कारण बनता है। इसका रक्षण 'जितेन्द्रिय, सब के प्रति स्नेह वाला, निद्वैष' पुरुष ही कर पाता है।
इंग्लिश (1)
Meaning
Soma, spirit of poetic omniscience, flow and purify us by streams of bliss distilled from experience and meditation for our intelligence, expertise and enlightenment, for fulfilment of Indra, man of power, Mitra, man of love, and Varuna, man of judgement.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्म्याचा साक्षात्कार करणारा कर्मयोगी अध्यापक व उपदेशक सर्वांची तृप्ती करतो. ॥५॥
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