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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 100 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 100/ मन्त्र 6
    ऋषिः - रेभसूनू काश्यपौ देवता - पवमानः सोमः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    पव॑स्व वाज॒सात॑मः प॒वित्रे॒ धार॑या सु॒तः । इन्द्रा॑य सोम॒ विष्ण॑वे दे॒वेभ्यो॒ मधु॑मत्तमः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पव॑स्व । वा॒ज॒ऽसात॑मः । प॒वित्रे॑ । धार॑या । सु॒तः । इन्द्रा॑य । सो॒म॒ । विष्ण॑वे । दे॒वेभ्यः॑ । मधु॑मत्ऽतमः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पवस्व वाजसातमः पवित्रे धारया सुतः । इन्द्राय सोम विष्णवे देवेभ्यो मधुमत्तमः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पवस्व । वाजऽसातमः । पवित्रे । धारया । सुतः । इन्द्राय । सोम । विष्णवे । देवेभ्यः । मधुमत्ऽतमः ॥ ९.१००.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 100; मन्त्र » 6
    अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 28; मन्त्र » 1
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    हे परमात्मन् ! (वाजसातमः) सर्वविधैश्वर्यप्रदो भवान् (पवित्रे) पूतेऽन्तःकरणे (धारया) धारणाशक्त्या (सुतः) साक्षात्क्रियते (सोम) हे सर्वोत्पादक ! (इन्द्राय) कर्मयोगिने (विष्णवे) ज्ञानयोगिने (देवेभ्यः) अन्यविद्वद्भ्यश्च (मधुमत्तमः) आनन्दमयो भवान् ॥६॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    हे परमात्मन् ! (वाजसातमः) सब प्रकार ऐश्वर्यों के देनेवाले आप (पवित्रे) पवित्र अन्तःकरण में (धारया) धारणारूप शक्ति से (सुतः) साक्षात्कार किये जाते हो। (सोम) हे सर्वोत्पादक परमात्मन् ! (इन्द्राय) कर्मयोगी के लिये (विष्णवे) ज्ञानयोगी के लिये (देवेभ्यः) अन्य विद्वानों के लिये (मधुमत्तमः) आप आनन्दमय हो ॥६॥

    भावार्थ

    वस्तुतः परमात्मा के ऐश्वर्य्य तथा विभूति के आनन्द को ज्ञानयोगी तथा कर्मयोगी ही भोगते हैं, अन्य नहीं ॥६॥

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    विषय

    विद्वान् का राज्य पद पर अभिषेक उसके प्रजा आदि के प्रति कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे (सोम) सर्व प्रेरक ! हे बलशालिन् ! तू (सुतः) उपासित वा अभिषिक्त होकर (वाज-सातमः) सब से अधिक ज्ञान, धन आदि का देने वाला और (मधुमत्-तमः) सब से उत्तम, मधुर वचन और ज्ञानवान् होकर (इन्द्राय) इस जीवात्मा और (विष्णवे) व्यापक प्रभु और (देवेभ्यः) विद्वान् दानी, तेजस्वी पुरुषों के लिये (पवस्व) यत्न कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    रभसूनू काश्यपौ ऋषी ॥ पवमानः सोमो देवता ॥ छन्दः - १, २, ४,७,८ निचृदनुष्टुप्। ३ विराडनुष्टुप्। ५, ६, ८ अनुष्टुप्॥ नवर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    वाजसातमः मधुमत्तमः

    पदार्थ

    हे सोम ! (सुतः) = उत्पन्न हुआ हुआ तू (धारण) = अपनी धारण शक्ति के साथ (पवित्रे) = पवित्र हृदय वाले पुरुष में (वाजसातम:) = अतिशयेन शक्ति को देनेवाला होता हुआ (पवस्व) = प्राप्त हो । हे (सोम) = वीर्य ! तू (इन्द्राय) = जितेन्द्रिय पुरुष के लिये, (विष्णवे) = व्यापक मनोवृत्ति वाले [उदार हृदय] पुरुष के लिये तथा (देवेभ्यः) = देववृत्ति वाले पुरुषों के लिये (मधुमत्तमः) = अतिशयेन माधुर्य को प्राप्त करानेवाला हो ।

    भावार्थ

    भावार्थ - जितेन्द्रिय उदार हृदय दिव्य वृत्ति के पुरुष हृदय को पवित्र बनाकर सोम का रक्षण करते हैं। यह उन्हें शक्ति व माधुर्य को प्राप्त कराता है।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Soma, all inspiring spirit of the universe, sweetest presence distilled and realised in the holy heart, flow on purifying by the stream of exhilaration, giving food, energy and fulfilment for the soul, for the universal vibrancy of nature and humanity, and for all the noble, generous and enlightened people.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्म्याचे ऐश्वर्य व विभूतीचा आनंद ज्ञानयोगी व कर्मयोगीच भोगतात, इतर नव्हे. ॥६॥

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