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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 100 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 100/ मन्त्र 7
    ऋषिः - रेभसूनू काश्यपौ देवता - पवमानः सोमः छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    त्वां रि॑हन्ति मा॒तरो॒ हरिं॑ प॒वित्रे॑ अ॒द्रुह॑: । व॒त्सं जा॒तं न धे॒नव॒: पव॑मान॒ विध॑र्मणि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वाम् । रि॒ह॒न्ति॒ । मा॒तरः॑ । हरि॑म् । प॒वित्रे॑ । अ॒द्रुहः॑ । व॒त्सम् । जा॒तम् । न । धे॒नवः॑ । पव॑मान । विऽध॑र्मणि ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वां रिहन्ति मातरो हरिं पवित्रे अद्रुह: । वत्सं जातं न धेनव: पवमान विधर्मणि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वाम् । रिहन्ति । मातरः । हरिम् । पवित्रे । अद्रुहः । वत्सम् । जातम् । न । धेनवः । पवमान । विऽधर्मणि ॥ ९.१००.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 100; मन्त्र » 7
    अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 28; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (पवमान) हे सर्वपावक ! (विधर्मणि) विविधज्ञानवति ज्ञानयज्ञे (त्वां) भवन्तं (अद्रुहः) द्रोहरहिता विज्ञानिनः (रिहन्ति) आस्वादयन्ति (न) यथा (धेनवः) गावः (जातं, वत्सं) उत्पन्नं सुतमास्वादयन्ति एवं हि (हरिं) परमात्मानमपि सर्वे प्रेम्णा गृह्णन्ति ॥७॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (पवमान) हे सबको पवित्र करनेवाले परमात्मन् ! (विधर्मणि) नाना प्रकार के ज्ञानों को धारण करनेवाले ज्ञानयज्ञ में (त्वां) तुमको (अद्रुहः) राग-द्वेष से रहित विज्ञानी लोग (रिहन्ति) आस्वादन करते हैं, (न) जैसे कि (धेनवः) गौएँ (जातं) उत्पन्न हुए (वत्सं) वत्स का आस्वादन करती हैं, इसी प्रकार (हरिं) हरिरूप परमात्मा को सब लोग प्रेम से ग्रहण करते हैं ॥७॥

    भावार्थ

    परमात्मा की प्राप्ति का सर्वोपरि साधन प्रेम है ॥७॥

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    विषय

    उसका स्तुत्य पद।

    भावार्थ

    हे (पवमान) सबको पवित्र करने हारे! (धेनवः जातं वत्सं न) गौएं जिस प्रकार अपने उत्पन्न हुए बच्चे को (रिहन्ति) चाटती हैं उसी प्रकार (विधर्मणि) विविध रूप से धारण करने वाले (पवित्रे) पवित्र रूप में वर्त्तमान (त्वां) तुझ (जातं) प्रकट वा प्रसिद्ध (वत्सं) वन्दनीय व स्तुत्य (हरिं) हृदय को आकर्षण करने वाले (त्वां) तुझको (धेनवः) वेद वाणियां (रिहन्ति) प्राप्त करती हैं, तुझको ही स्पर्श करतीं, तुझे लक्ष्य करतीं, तुझ तक अपना तात्पर्य प्रकट करती हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    रभसूनू काश्यपौ ऋषी ॥ पवमानः सोमो देवता ॥ छन्दः - १, २, ४,७,८ निचृदनुष्टुप्। ३ विराडनुष्टुप्। ५, ६, ८ अनुष्टुप्॥ नवर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    विधर्मणि

    पदार्थ

    हे (पवमान) = जीवन को पवित्र बनानेवाले सोम ! (त्वाम्) = तुझ (हरिम्) = दुःखों व रोगों के हरण करनेवाले को (मातर:) = जीवन का निर्माण करनेवाले, (अद्रुहः) = द्रोह की भावना से रहित पुरुष (रिहन्ति) = आस्वादित करते हैं। अर्थात् तेरे रक्षण में एक अद्भुत आनन्द का अनुभव करते हैं । हे सोम ! (विधर्मणि) = विशिष्ट धारणात्मक कार्य के निमित्त तेरा इस प्रकार ये आस्वादन करते हैं, (न) = जैसे कि (जातं वत्सम्) = उत्पन्न हुए हुए बछड़े को (धेनवः) = नव सूतिका गौ चाटती दिखती हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- सोमरक्षण के लिये अद्रोह आवश्यक है। रक्षित सोम ही धारण करता है ।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O Soma, pure and purifying saviour spirit of universal sanctity, just as mother cows love and caress a new born calf, so do the motherly forces of nature and humanity free from the negativities of malice and jealousy love and cherish you arising in the heart and inspiring the soul in various dharmic situations of life.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमेश्वराच्या प्राप्तीचे सर्वात उत्तम साधन प्रेम आहे. ॥७॥

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