ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 102/ मन्त्र 2
उप॑ त्रि॒तस्य॑ पा॒ष्यो॒३॒॑रभ॑क्त॒ यद्गुहा॑ प॒दम् । य॒ज्ञस्य॑ स॒प्त धाम॑भि॒रध॑ प्रि॒यम् ॥
स्वर सहित पद पाठउप॑ । त्रि॒तस्य॑ । पा॒ष्योः॑ । अभ॑क्त । यत् । गुहा॑ । प॒दम् । य॒ज्ञस्य॑ । स॒प्त । धाम॑ऽभिः । अध॑ । प्रि॒यम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
उप त्रितस्य पाष्यो३रभक्त यद्गुहा पदम् । यज्ञस्य सप्त धामभिरध प्रियम् ॥
स्वर रहित पद पाठउप । त्रितस्य । पाष्योः । अभक्त । यत् । गुहा । पदम् । यज्ञस्य । सप्त । धामऽभिः । अध । प्रियम् ॥ ९.१०२.२
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 102; मन्त्र » 2
अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 4; मन्त्र » 2
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अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 4; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(पाष्योः) प्रकृतिपुरुषरूपदृढाधिकरणमाश्रित्य (त्रितस्य) गुणत्रयस्य (पदम्) स्थानं (उपाभक्त) समसेवत (यत्) यत् पदं (गुहा) प्रकृतिरूपगुहायां (यज्ञस्य) परमात्मसम्बन्धेन (सप्तधामभिः) महत्तत्त्वादिभिः सप्तभिरपि प्रकृतिभिः (अध, प्रियम्) अतिप्रियतां धारयति ॥२॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(पाष्योः) प्रकृति और पुरुषरूपी जो दृढ़ अधिकरण हैं, उन के आधार पर (त्रितस्य) तीनों गुणों के (पदं) पद को (उपाभक्त) सेवन किया (यत्) जो पद (गुहा) प्रकृतिरूपी गुहा में (यज्ञस्य) परमात्मा के सम्बन्ध से (सप्तधामभिः) महत्तत्त्वादि सातों प्रकृतियों द्वारा (अध, प्रियं) अत्यन्त प्रियता को धारण करता है ॥२॥
भावार्थ
इस मन्त्र में महत्तत्त्वादि कार्य्य-कारणों द्वारा सृष्टि का निरूपण किया गया है ॥२॥
विषय
यज्ञमय प्रभु का रम्य रूप।
भावार्थ
और (त्रितस्य) तीनों लोकों में व्यापक प्रभु के (पाष्योः) शिलाओं के तुल्य आकाश और भूमि इन के बीच और (गुहा) बुद्धि में (यद् पदम्) जिसका ज्ञानमय रूप सेवन किया जाता है, उस (यज्ञस्य) यज्ञमय प्रभु का (सप्त धामभिः) सातों जगत् के धारक सामर्थ्यों, लोकों वा प्राणों द्वारा (प्रियम्) प्रिय मनोहर रूप है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
त्रित ऋषिः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्दः–१–४, ८ निचृदुष्णिक्। ५-७ उष्णिक्। अष्टर्चं सूक्तम्॥
विषय
सप्त धामभिः अध प्रियम्
पदार्थ
(यत्) = जब (त्रितस्य) =' काम-क्रोध-लोभ' को तैर जानेवाले त्रित के (पाष्योः) = पाषाणवत् दृढ़ मस्तिष्क व शरीर में और (गुहा) = हृदय रूप गुहा में (पदम्) = स्थान को (उप अभक्त) = समीप से सेवित करता है, अर्थात् शरीर में सुरक्षित हुआ हुआ सोम जब मस्तिष्क शरीर व हृदय में अपना कार्य करता है तो यह सोमधारक पुरुष (यज्ञस्य) = उस उपासनीय प्रभु के (सप्त धामभिः) = सातों 'भूः भुवः स्वः महः जनः तपः सत्यं' शब्दों से वर्णित 'स्वास्थ्य-ज्ञान- जितेन्द्रियता - हृदय की विशालता- शक्तिविकास - तप व सत्य' रूप तेजों को प्राप्त करता है और (अध) = अब (प्रियम्) = उस प्रिय प्रभु को प्राप्त करनेवाला बनता है । सोमरक्षण के लिये वासनाओं को जीतना आवश्यक है। यह सोम ही सुरक्षित होकर मस्तिष्क हृदय व शरीर को दीप्त निर्मल व सशक्त बनाता है। ऐसी स्थिति में प्रभु प्राप्ति के मार्ग पर चलता हुआ यह पुरुष सातों प्रयाणों को तैर करता हुआ प्रभु को पानेवाला बनता है । (यज्ञस्य सप्त धामभिः) = इन शब्दों में योग की सप्त भूमिकाओं का भी संकेत स्पष्ट है । इन सात भूमिकाओं को पार करके यह योगी अपने प्रिय प्रभु को पानेवाला बनता है ।
भावार्थ
भावार्थ - कामादि शत्रुओं से तैरने वाला, दृढ शरीर वाला योग सातों भूमियों को पार कर साधक प्रभु को प्राप्त कर सकता है।
इंग्लिश (1)
Meaning
Close to the adamantine integration of Purusha and Prakrti in human form is the secret seat of heart and clairvoyant intelligence wherein the climactic presence of the master of three orders of Prakrti and super presence of divinity, and there it is shared by seven prakrtic, pranic and psychic orders of existence and adored by seven metres of Vedic hymns as the dearest supreme object of worship.
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात महत्तत्त्व इत्यादी कार्यकारणांद्वारे सृष्टीचे निरुपण केलेले आहे. ॥२॥
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