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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 103 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 103/ मन्त्र 2
    ऋषिः - द्वितः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - निचृदुष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    परि॒ वारा॑ण्य॒व्यया॒ गोभि॑रञ्जा॒नो अ॑र्षति । त्री ष॒धस्था॑ पुना॒नः कृ॑णुते॒ हरि॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    परि॑ । वारा॑णि । अ॒व्यया॑ । गोभिः॑ । अ॒ञ्जा॒नः । अ॒र्ष॒ति॒ । त्री । स॒धऽस्था॑ । पु॒ना॒नः । कृ॒णु॒ते॒ । हरिः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    परि वाराण्यव्यया गोभिरञ्जानो अर्षति । त्री षधस्था पुनानः कृणुते हरि: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    परि । वाराणि । अव्यया । गोभिः । अञ्जानः । अर्षति । त्री । सधऽस्था । पुनानः । कृणुते । हरिः ॥ ९.१०३.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 103; मन्त्र » 2
    अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 6; मन्त्र » 2
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (गोभिः, अञ्जानः) अन्तःकरणवृत्तिभिः साक्षात्कृतः परमात्मा (अव्यया) स्वरक्षायुक्तशक्त्या (वाराणि) वरणार्हानि अन्तःकरणानि (पर्यर्षति) प्राप्नोति (त्री, सधस्था) कारणसूक्ष्मस्थूलात्मक- त्रिविधशरीराणि (पुनानः) पवित्रयन् (हरिः) अन्तःकरणस्य मलिवक्षेपादिदोषनाशकः (कृणुते) उपासकमपि पावयति ॥२॥

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    हिन्दी (1)

    पदार्थ

    (गोभिरञ्जानः) अन्तःकरण की वृत्तियों द्वारा साक्षात्कार को प्राप्त हुआ परमात्मा (अव्यया) अपनी रक्षायुक्त शक्ति से (वाराणि) वरणयोग्य अर्थात् पात्रता को प्राप्त अन्तःकरणों को (परि, अर्षति) प्राप्त होता है, (त्री, सधस्था) कारण, सूक्ष्म और स्थूल तीनों शरीरों को (पुनानः) पवित्र करता हुआ (हरिः) वह अन्तःकरण के मल-विक्षेपादि दोषों को हरण करनेवाला परमात्मा (कृणुते) उपासक को पवित्र करता है ॥२॥

    भावार्थ

    जो लोग अन्तःकरण के मल-विक्षेपादि दोषों को दूर करते हैं, वे लोग परमात्मज्ञान के अधिकारी बनकर परमात्मज्ञान का लाभ करते हैं ॥२॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Pleased and exalted with songs of adoration, Soma, saviour spirit of bliss, radiates with its protective presence to the distinguished hearts and, purifying the body, mind and soul of the celebrants, blesses them in their physical, subtle and causal body states of existence.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे लोक अंत:करणातील मल, विक्षेप इत्यादी दोषांना दूर करतात. ते लोक परमात्मज्ञानाचे अधिकारी बनून परमात्मज्ञानाचा लाभ घेतात. ॥२॥

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