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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 104 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 104/ मन्त्र 2
    ऋषिः - पर्वतनारदौ द्वे शिखण्डिन्यौ वा काश्यप्यावप्सरसौ देवता - पवमानः सोमः छन्दः - निचृदुष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    समी॑ व॒त्सं न मा॒तृभि॑: सृ॒जता॑ गय॒साध॑नम् । दे॒वा॒व्यं१॒॑ मद॑म॒भि द्विश॑वसम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सम् । ई॒म् इति॑ । व॒त्सम् । न । मा॒तृऽभिः॑ । सृ॒जत॑ । ग॒य॒ऽसाध॑नम् । दे॒व॒ऽअ॒व्य॑म् । मद॑म् । अ॒भि । द्विऽश॑वसम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    समी वत्सं न मातृभि: सृजता गयसाधनम् । देवाव्यं१ मदमभि द्विशवसम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सम् । ईम् इति । वत्सम् । न । मातृऽभिः । सृजत । गयऽसाधनम् । देवऽअव्यम् । मदम् । अभि । द्विऽशवसम् ॥ ९.१०४.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 104; मन्त्र » 2
    अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 7; मन्त्र » 2
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (गयसाधनम्) ज्ञानसाधनं (देवाव्यम्) देवरक्षकम् (मदम्) आनन्दमयं (द्विशवसम्) महाबलिनं(वत्सं, न)सर्वाभिव्यक्तशक्तिमिव स्थितं  (ईम्) इमं  परमात्मानं  (मातृभिः,  संसृजत)  विद्वांसः  बुद्धिवृत्तिभिः  साक्षात्कुर्वन्ति ॥२॥

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    हिन्दी (1)

    पदार्थ

    (गयसाधनम्) ज्ञान का साधन जो परमात्मा है, (देवाव्यम्) देवों का रक्षक (मदम्) जो आनन्दस्वरूप है, (द्विशवसम्) जो बलिष्ठ है, (वत्सं, न) जो सर्वाभिव्यक्त शक्ति के समान है, (ईम्) इसको (मातृभिः, संसृजत) विद्वान् लोग बुद्धिवृत्ति द्वारा साक्षात्कार करते हैं ॥२॥

    भावार्थ

    परमात्मा दैवीसम्पत्तिवाले पुरुषों को अपनी दिव्य शक्तियों से विभूषित करता है और जो लोग अनाचारी आसुरी भाव से सम्पन्न हैं, उनको परमात्मज्ञान की ज्योति से देवपुरुषों के समान लाभ नहीं होता। तात्पर्य्य यह है कि दिव्यपुरुषों में परमात्मा की ज्योति प्रतिबिम्बित होती है और तमरूप भावों से दूषित पुरुषों में नहीं ॥२॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    As mothers love, adore and adorn a child with beauty and ornaments, so energise and exalt Soma as versatile beauty and grace of life, protector of divinities, source of ecstasy and doubly strong both physically and spiritually.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा दैवी संपत्तिवान पुरुषांना आपल्या दिव्य शक्तींनी विभूषित करतो व जे लोक आचारहीन आसुरी भाव बाळगतात त्यांना देवपुरुषाप्रमाणे परमात्म्याच्या ज्ञानज्योतीचा लाभ होत नाही. तात्पर्य हे की दिव्य पुरुषांमध्ये परमात्म्याची ज्योती प्रतिबिंबित होते व तमरुपी भाव असल्यामुळे अवगुणी पुरुषांमध्ये ती नसते.

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