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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 104 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 104/ मन्त्र 6
    ऋषिः - पर्वतनारदौ द्वे शिखण्डिन्यौ वा काश्यप्यावप्सरसौ देवता - पवमानः सोमः छन्दः - निचृदुष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    सने॑मि कृ॒ध्य१॒॑स्मदा र॒क्षसं॒ कं चि॑द॒त्रिण॑म् । अपादे॑वं द्व॒युमंहो॑ युयोधि नः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सने॑मि । कृ॒धि । अ॒स्मत् । आ । र॒क्षस॑म् । कम् । चि॒त् । अ॒त्रिण॑म् । अप॑ । अदे॑वम् । द्व॒युम् । अंहः॑ । यु॒यो॒धि॒ । नः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सनेमि कृध्य१स्मदा रक्षसं कं चिदत्रिणम् । अपादेवं द्वयुमंहो युयोधि नः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सनेमि । कृधि । अस्मत् । आ । रक्षसम् । कम् । चित् । अत्रिणम् । अप । अदेवम् । द्वयुम् । अंहः । युयोधि । नः ॥ ९.१०४.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 104; मन्त्र » 6
    अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 7; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    हे परमात्मन् ! भवान् (अस्मत्) अस्मद्यज्ञकर्तुः (सनेमि) शाश्वतिक-मैत्रीं (कृधि) उत्पादयतु (कञ्चिदत्रिणम्) कञ्चिदपि  हिंसकं (रक्षसम्)राक्षसं (अपादेवम्) दिव्यसम्पत्तिगुणरहितं (द्वयुम्) सत्यासत्यमायायुक्तंमत्तोऽपसारयतु (नः)  अस्माकं  (अंहः) पापम्  (युयोधि) अपहन्तु॥६॥ इति चतुरुत्तरशततमं सूक्तं सप्तमो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    हे परमात्मन् ! आप इस यज्ञकर्ता के (सनेमि) सनातन काल की मैत्रीभावना को (कृधि) धारण करें (कञ्चिदत्रिणम्) कोई भी हिंसक क्यों न हो, उसको (रक्षसम्) जो राक्षस हो, (अपादेवम्) जो दैवी सम्पत्ति के गुणों से रहित है, (द्वयुम्) झूठ-सच की माया से मिला हुआ है, उसको हमसें दूर करो और (नः) हमारे (अंहः) पापों को (युयोधि) दूर करो ॥६॥

    भावार्थ

    परमात्मा पापी पुरुषों का हनन करके निष्कपटता का प्रचार करता है ॥६॥ यह १०४ वाँ सूक्त और सातवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    छली, वंचक को दूर करने की प्रार्थना।

    भावार्थ

    तू (अस्मत्) हमसे (रक्षसम् अत्रिणं) विघ्नकारी, हमारा नाश करने वाले, (अदेवं) दानशीलता से रहित, दुःखदायी, (द्वयुम्) दो भाव रखने वाले, भीतर कुछ और बाहर कुछ, कपटी, (कंचित्) चाहे वह कोई भी हो उसको (अस्मत् अप आकृधि) हम से दूर कर और (नः) हमारे पाप को हम से (अप युयोधि) दूर कर। इति सप्तमो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    पर्वत नारदौ द्वे शिखण्डिन्यौ वा काश्यप्यावप्सरसौ ऋषी॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्दः–१, ३, ४ उष्णिक्। २, ५, ६ निचृदुष्णिक्॥

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    विषय

    सोमरक्षण व पवित्र व्यवहार

    पदार्थ

    हे सोम ! तू (अस्मत्) = हमारे से (सनेमि) = शीघ्र ही [१२.४० नि०] (कञ्चित्) = इस अवर्णनीय रूप वाले (अत्रिणम्) = हमें खाजानेवाले (रक्षसं) = राक्षसी भाव को (अपाकृधि) = दूर कर । सोमरक्षण से सब आसुरी वृत्तियों का विनाश होता ही है । हे सोम ! तू (अदेवं) = इस देव विरोधी भाव को, (द्वयुम्) = सत्यानृत व्यवहार को (अहः) = कुटिलता व पाप को (नः) = हमारे से (अपयुयोधि) = पृथक् कर ।

    भावार्थ

    भावार्थ- सोमरक्षण से सब 'राक्षसी भाव, देव विरोधी वृत्तियाँ, सत्यानृत व्यवहार [double dealing], कुटिलता व पाप' नष्ट हो जाते हैं । अगले सूक्त के ऋषि भी 'पर्वत व नारद' ही हैं-

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O Soma, let us be together in peace and friendship, in arms and in the daily business rounds forward as ever before. Keep off the demonic destroyer, the ogre, the impious, the double dealer, and the sin and sinner.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा पापी पुरुषांचे हनन करून निष्कपटतेचा प्रचार करतो. ॥६॥

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