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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 113 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 113/ मन्त्र 7
    ऋषिः - कश्यपः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - विराट्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    यत्र॒ ज्योति॒रज॑स्रं॒ यस्मिँ॑ल्लो॒के स्व॑र्हि॒तम् । तस्मि॒न्मां धे॑हि पवमाना॒मृते॑ लो॒के अक्षि॑त॒ इन्द्रा॑येन्दो॒ परि॑ स्रव ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत्र॑ । ज्योतिः॑ । अज॑स्रम् । यस्मि॑न् । लो॒के । स्वः॑ । हि॒तम् । तस्मि॑न् । माम् । धे॒हि॒ । प॒व॒मा॒न॒ । अ॒मृते॑ । लो॒के । अक्षि॑ते । इन्द्रा॑य । इ॒न्दो॒ इति॑ । परि॑ । स्र॒व॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यत्र ज्योतिरजस्रं यस्मिँल्लोके स्वर्हितम् । तस्मिन्मां धेहि पवमानामृते लोके अक्षित इन्द्रायेन्दो परि स्रव ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत्र । ज्योतिः । अजस्रम् । यस्मिन् । लोके । स्वः । हितम् । तस्मिन् । माम् । धेहि । पवमान । अमृते । लोके । अक्षिते । इन्द्राय । इन्दो इति । परि । स्रव ॥ ९.११३.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 113; मन्त्र » 7
    अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 27; मन्त्र » 2
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (यत्र) यत्र मोक्षे  (अजस्रं, ज्योतिः)  सततं  ज्योतिः  प्रकाशते (यस्मिन्, लोके)  यत्र  ज्ञाने च (स्वः, हितं)  केवलं  सुखमेव (तस्मिन्, अमृते)  यत्रामृतावस्थायां  (अक्षिते)  वृद्धिक्षयरहितायां (पवमान) हे सर्वस्य पावयितः ! (मां, धेहि) मां निवासयतु  (इन्दो) हे प्रकाशस्वरूप !  (इन्द्राय)  उक्तज्ञानयोगिने  भवान् (परि, स्रव) पूर्णाभिषेकहेतुरस्तु ॥७॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (यत्र) जिस मोक्ष में (अजस्रं, ज्योतिः) निरन्तर ज्योति का प्रकाश होता तथा (यस्मिन्, लोके) जिस ज्ञान में (स्वः, हितं) सुख ही सुख होता है, (तस्मिन्, अमृते) उस अमृत अवस्था में (अक्षिते) जो वृद्धि तथा क्षय से रहित है, (पवमान) हे सबको पवित्र करनेवाले परमात्मन् ! (मां, धेहि) मुझे रखें। (इन्दो) हे प्रकाशकस्वरूप परमात्मन् ! (इन्द्राय) उक्त ज्ञानयोगी के लिये आप (परि, स्रव) पूर्णाभिषेक का कारण बनें ॥७॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में यह प्रार्थना की गई है कि हे परमात्मन् ! ज्ञानयोगी तथा कर्मयोगी के लिये सदुपदेशरूप वाणी प्रदान करें और वृद्धि तथा क्षय से रहित अमृत अवस्था प्राप्त करायें, जिससे वेदरूप वाणी का प्रकाश हो और आप अपनी कृपा से ज्ञानयोगी को अभिषिक्त करें ॥७॥

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    विषय

    अमृतत्व-अक्षितत्व - ज्योति - स्वः

    पदार्थ

    हे (पवमान) = पवित्र करनेवाले सोम ! (माम्) = मुझे (तस्मिन्) = उस (अमृते) = मृत्यु व रोगों से रहित (अक्षिते) = शक्ति क्षय से शून्य (लोके) = लोकालोक में (धेहि) = स्थापित कर, मुझे उस स्थिति में प्राप्त (करा यत्र) = जहाँ (अजस्त्रं ज्योतिः) = निरन्तर प्रकाश ही प्रकाश है तथा (यस्मिन् लोके) = जिस लोक में (स्वः हितम्) = सुख ही सुख की स्थापना है। सुरक्षित हुआ हुआ सोम हमें नीरोगता, अक्षीणशक्तिता, ज्योति व सुख= को प्राप्त कराता है, हे (इन्दो) = हमें शक्तिशाली बनानेवाले सोम ! तू (इन्द्राय) = जितेन्द्रिय पुरुष के लिये (परिस्रव) = शरीर में चारों ओर परिस्रुत हो । शरीर में व्याप्त होकर तू इस शरीर लोक को मन्त्र के शब्दों में 'अमृत, अक्षित, अजस्र ज्योतिवाला व स्वः सम्पन्न' बनाता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हे सोम ! मृत्यु और रोगों से बचाकर अमृत्व प्रदान कर ।

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    विषय

    अमृत लोक का वर्णन।

    भावार्थ

    हे (पवमान) सब को पवित्र करने हारे स्वामिन् ! प्रभो ! (यत्र) जहां (अजस्रं ज्योतिः) प्रकाश, ज्ञान कभी नाश को प्राप्त नहीं हो, सदा प्रकाश बना रहे, (यस्मिन् लोके) जिस लोक में सदा (स्वः हितम्) सुख बना रहता है, (तस्मिन्) उस (अमृते अक्षिते लोके) अमृत, मृत्युरहित, अक्षय, विनाशरहित, नित्य लोक में (माम् धेहि) मुझे रख। (इन्दो इन्द्राय परि स्रव) हे दयार्द्र-स्वभाव ! प्रभो ! तू (इन्द्राय) इस जीव-आत्मा के लिये सब ओर से सुखों को बहा। वा हे जीव ! तू उस ऐश्वर्यवान् प्रभु को प्राप्त करने के लिये आगे बढ़।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कश्यप ऋषिः। पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:- १, २, ७ विराट् पंक्तिः । ३ भुरिक् पंक्तिः। ४ पंक्तिः। ५, ६, ८-११ निचृत पंक्तिः॥ एकादशर्चं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Where light is eternal, where divine bliss is vested in life itself, in that immortal imperishable haven of freedom and bliss place me, O Spirit of beauty, majesty and grace, and flow for the sake of Indu, soul of the system I love and admire.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात ही प्रार्थना केलेली आहे की, हे परमात्मा! ज्ञानयोगी व कर्मयोग्यासाठी सदुपदेशरूपी वाणी प्रदान कर व वृद्धी व क्षय रहित अमृत अवस्था प्राप्त व्हावी ज्यामुळे वेदरूपी वाणीचा प्रकाश व्हावा. तू आपल्या कृपेने ज्ञानयोग्यांना अभिषिक्त कर. ॥७॥

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