ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 113/ मन्त्र 8
यत्र॒ राजा॑ वैवस्व॒तो यत्रा॑व॒रोध॑नं दि॒वः । यत्रा॒मूर्य॒ह्वती॒राप॒स्तत्र॒ माम॒मृतं॑ कृ॒धीन्द्रा॑येन्दो॒ परि॑ स्रव ॥
स्वर सहित पद पाठयत्र॑ । राजा॑ । वै॒व॒स्व॒तः । यत्र॑ । अ॒व॒ऽरोध॑नम् । दि॒वः । यत्र॑ । अ॒मूः । य॒ह्वतीः । आपः॑ । तत्र॑ । माम् । अ॒मृत॑म् । कृ॒धि॒ । इन्द्रा॑य । इ॒न्दो॒ इति॑ । परि॑ । स्र॒व॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यत्र राजा वैवस्वतो यत्रावरोधनं दिवः । यत्रामूर्यह्वतीरापस्तत्र माममृतं कृधीन्द्रायेन्दो परि स्रव ॥
स्वर रहित पद पाठयत्र । राजा । वैवस्वतः । यत्र । अवऽरोधनम् । दिवः । यत्र । अमूः । यह्वतीः । आपः । तत्र । माम् । अमृतम् । कृधि । इन्द्राय । इन्दो इति । परि । स्रव ॥ ९.११३.८
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 113; मन्त्र » 8
अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 27; मन्त्र » 3
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अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 27; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(यत्र) यस्यामवस्थायां (वैवस्वतः, राजा) काल एव राजास्ति (यत्र,अवरोधनम्, दिवः) यत्राह्नो रात्रेश्च वशीकरणं (यत्र, अमूः, यह्वतीः, आपः) यत्रोक्ताध्यात्मिकज्ञानस्य बाहुल्यं (तत्र) तस्मिन् पदे (मां) मां (अमृतं, कृधि) अमृतं करोतु (इन्दो) हे प्रकाशस्वरूप परमात्मन् !भवान् (इन्द्राय) उक्तज्ञानयोगिने (परि, स्रव) पूर्णाभिषेकहेतुर्भवतु ॥८॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(यत्र) जिस अवस्था में (वैवस्वतः, राजा) काल ही राजा है, (यत्र, अवरोधनं, दिवः) यहाँ दिन तथा रात का वशीकरण है, (यत्र, अमूः, यह्वतीः आपः) यहाँ उक्त आध्यात्मिक ज्ञानों का बाहुल्य है, (तत्र) उस पद में (मां) मुझको (अमृतं, कृधि) अमृत बनाओ। (इन्दो) हे प्रकाशस्वरूप परमात्मन् ! आप (इन्द्राय) ज्ञानयोगी के लिये (परि, स्रव) पूर्णाभिषेक के निमित्त बनें ॥८॥
भावार्थ
इस मन्त्र का भाव यह है कि परमात्मा ज्ञानयोगी को सत्य तथा अमृत के निर्णय में अभिषिक्त करता है अर्थात् ज्ञानयोगीरूप राजा सत्य तथा अनृत का निर्णय करके अपने विवेकरूप राज्य को अटल बनाता है ॥८॥
विषय
मर्यादा -ज्ञान-शक्ति
पदार्थ
हे (इन्दो) = सोम ! (माम्) = मुझे (तत्र) = उस लोक में (अमृतं कृधि) = अमर [नीरोग] बना, (यत्र) = जहाँ (वैवस्वतः) = विवस्वान् का पुत्र [ विवस्= ज्ञान किरणें] अतिशय ज्ञान सम्पन्न पुरुष (राजा) = शासक है, जीवन को बड़ा व्यवस्थित बनानेवाला है । और (यत्र) = जहाँ (दिवः अवरोधनम्) = ज्ञान का अवरोधन- प्रवेश है। ‘अवरोध' शब्द अन्तःपुर के लिये प्रयुक्त होता है । सो जहाँ ज्ञान के देवताओं का ही स्थान है। तथा (यत्र) = जहाँ (अमूः) = वे (यह्वती:) = महान् (आपः) = रेतः कण रूप जलों का स्थान है | सोमरक्षण ज्ञान वृद्धि के द्वारा जीवन को व्यवस्थित कर देता है, ज्ञान का तो यह अन्तःपुर ही बन जाता है, महत्त्वपूर्ण रेतःकणों को शरीर में व्याप्त करके यह सोमरक्षण हमें अमृतत्व प्राप्त कराता है । सो, हे (इन्दो) = सोम ! तू (इन्द्राय) = जितेन्द्रिय पुरुष के लिये (परिस्रव) = परिस्रुत हो, शरीर में चारों ओर व्याप्त होनेवाला हो। शरीर में व्याप्त होकर ही तू हमारे इस शरीर को अमृत बनाएगा।
भावार्थ
भावार्थ- सोमरक्षण से शरीर व्यवस्थित ज्ञान सम्पन्न व नीरोग बनता है।
विषय
प्रभु से अमृत होने की प्रार्थना।
भावार्थ
(यत्र वैवस्वतः राजा) जहां वह विविध ऐश्वर्यों और लोकों का स्वामी, प्रकाशमान, सब का स्वामी विराजता है, (यत्र) जहां (दिवः) प्रकाश, ज्ञान की सदा स्थिति है, (यत्र अमूः) जहां वे परम उत्कृष्ट (यह्वतीः आपः) महान् आप्त जन एवं व्यापक शक्तियां वा सब का उत्पादक व्यापक प्रभु है (तत्र माम् अमृतं कृधि) उस लोक में मुझ को भी अमृत, मरणरहित बना। (इन्द्राय इन्दो परिस्रव) हे दयालो ! तू इस अन्नोपभोक्ता कर्मफलाकांक्षी जीव के लिये (परि स्रव) दया कर, और सर्वत्र सुखों की वर्षा कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कश्यप ऋषिः। पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:- १, २, ७ विराट् पंक्तिः । ३ भुरिक् पंक्तिः। ४ पंक्तिः। ५, ६, ८-११ निचृत पंक्तिः॥ एकादशर्चं सूक्तम्।
इंग्लिश (1)
Meaning
Where eternal Time is the ruler supreme, where light and bliss is self- contained eternally without obstruction of mutability, where those mighty streams of bliss flow within constant Infinity, there, O Soma, place me immortal. Indu, O spirit of joy, generosity and grace, flow for Indra, soul of the system of existence in the service of divinity.
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात हा भाव आहे की, परमात्मा ज्ञानयोग्याला सत्य व असत्याच्या निर्णयात अभिषिक्त करतो. अर्थात्, ज्ञानयोगीरूप राजा सत्य व असत्याचा निर्णय करून आपल्या राज्याला दृढ करतो. ॥८॥
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