ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 12/ मन्त्र 7
ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
नित्य॑स्तोत्रो॒ वन॒स्पति॑र्धी॒नाम॒न्तः स॑ब॒र्दुघ॑: । हि॒न्वा॒नो मानु॑षा यु॒गा ॥
स्वर सहित पद पाठनित्य॑ऽस्तोत्रः । वन॒स्पतिः॑ । धी॒नाम् । अ॒न्तरिति॑ । स॒बः॒ऽदुघः॑ । हि॒न्वा॒नः । मानु॑षा । यु॒गा ॥
स्वर रहित मन्त्र
नित्यस्तोत्रो वनस्पतिर्धीनामन्तः सबर्दुघ: । हिन्वानो मानुषा युगा ॥
स्वर रहित पद पाठनित्यऽस्तोत्रः । वनस्पतिः । धीनाम् । अन्तरिति । सबःऽदुघः । हिन्वानः । मानुषा । युगा ॥ ९.१२.७
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 12; मन्त्र » 7
अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 39; मन्त्र » 2
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अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 39; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
स परमात्मा (नित्यस्तोत्रः) नित्यस्तवनीयः (वनस्पतिः) सर्वब्रह्माण्डाधिपतिः (धीनाम् अन्तः) बुद्धीनामवसानः (सबः दुघः) अमृतेन तर्पकश्च (मानुषा युगा) स्त्रीपुरुषयोर्युगलस्योत्पादकश्च (हिन्वानः) सर्वस्य तृप्तिकारकश्चास्ति ॥७॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
वह परमात्मा (नित्यस्तोत्रः) नित्यस्तुति करने योग्य है (वनस्पतिः) सब ब्रह्माण्डों का स्वामी है (धीनाम् अन्तः) बुद्धियों का अन्त है (सबः दुघः) अमृत से परिपूर्ण करनेवाला है (मानुषा युगा) और स्त्री-पुरुष के जोड़े को उत्पन्न करनेवाला है (हिन्वानः) सबका तृप्तिकारक है ॥७॥
भावार्थ
बुद्धियों का अन्त उसको इस अभिप्राय से कथन किया गया है कि मनुष्य की बुद्धि उसके पारावार को नहीं पा सकती, इसलिये उसने मनुष्यों पर अत्यन्त करुणा करके अपने वेदरूपी ज्ञान का प्रकाश किया है ॥७॥
विषय
'नित्य - स्तोत्र - वनस्पति' सोम
पदार्थ
[१] गत मन्त्र में वर्णित सोम (नित्यस्तोत्र:) = सदा प्रभु के स्तोत्रोंवाला होता है, अर्थात् सोमरक्षणवाला पुरुष प्रभु की स्तुति के प्रति झुकाववाला होता है । (वनस्पतिः) = यह सोम ज्ञानरश्मियों का स्वामी है [वन = a ray of light] सुरक्षित सोम ज्ञानाग्नि का ईंधन बनकर ज्ञानाग्नि को दीप्त करता है। तब ज्ञानरश्मियाँ चारों ओर फैलती हैं । [२] यह (सबर्दुघः) = ज्ञानदुग्ध का दोहन करनेवाला सोम (मानुषा युगा) = मानव दम्पतियों को, विचारशील पति-पत्नियों को (धीनां अन्तः) = ज्ञानपूर्वक किये जानेवाले कर्मों के अन्दर (हिन्वानः) = प्रेरित करता है । सोमरक्षण के होने पर हम ज्ञानदुग्ध का पान करते हैं। इस ज्ञानदुग्ध का पान करनेवाले पति-पत्नी सदा ज्ञानपूर्वक उत्तम यज्ञादि कर्मों में प्रवृत्त रहते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- सोमरक्षण के होने पर हम [१] सदा प्रभु-स्तवन की रुचिवाले, [२] ज्ञानरश्मियों को प्राप्त करनेवाले, [३] ज्ञानपूर्वक उत्तम कर्मों में प्रवृत्त होनेवाले होते हैं ।
विषय
समुद्र और मेघ के तुल्य शास्य-शासकों के कर्त्तव्य, प्रजा के बल, ज्ञान की उन्नति।
भावार्थ
वह विद्वान् वा राजा (नित्य-स्तोत्रः) सदा अन्यों को उपदेश देने वाला और अन्यों से सदा प्रशंसनीय, (वनस्पतिः) ऐश्वर्यों, तेजों का पालक, सूर्यवत् तेजस्वी वा वट आदि के समान आश्रित जनों का पालक (मानुषा युगा हिन्वानः) मनुष्यों के जोड़ों, स्त्री पुरुषों की वृद्धि, उन्नति करता हुआ, (सबर्दुघः सन्) उन में बलदायक रसवत् ज्ञान का सञ्चार करता हुआ (धीनाम् अन्तः) उनके बीच उनकी बुद्धियों और कर्मों के बीच (वाचं प्र इष्यति) वाणी की उत्तम प्रेरणा करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
असितः काश्यपो देवलो वा ऋषिः ॥ पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:- १, २, ६–८ गायत्री। ३– ५, ९ निचृद् गायत्री॥ नवर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Soma eternally sung in hymns of adoration, creator, protector and sustainer of nature, indwelling inspirer of mind, intelligence and will, giver of the nectar of nourishment and joy, inspires and fulfils the couples and communities of humanity as a friend and companion.
मराठी (1)
भावार्थ
बुद्धीचा अंत असतो असे यासाठी म्हटले आहे की, माणसाची बुद्धी त्या परमेश्वराला पूर्ण रूपाने जाणू शकत नाही. त्यासाठी त्याने माणसांवर अत्यंत दया करून वेदवाणीचा प्रकाश केलेला आहे. ॥७॥
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