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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 15 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 15/ मन्त्र 5
    ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा देवता - पवमानः सोमः छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    ए॒ष रु॒क्मिभि॑रीयते वा॒जी शु॒भ्रेभि॑रं॒शुभि॑: । पति॒: सिन्धू॑नां॒ भव॑न् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒षः । रु॒क्मिऽभिः॑ । ई॒य॒ते॒ । वा॒जी । शु॒भ्रेभिः॑ । अं॒शुऽभिः॑ । पतिः॑ । सिन्धू॑नाम् । भव॑न् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एष रुक्मिभिरीयते वाजी शुभ्रेभिरंशुभि: । पति: सिन्धूनां भवन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एषः । रुक्मिऽभिः । ईयते । वाजी । शुभ्रेभिः । अंशुऽभिः । पतिः । सिन्धूनाम् । भवन् ॥ ९.१५.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 15; मन्त्र » 5
    अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 5; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (एषः वाजी) अनन्तबलोऽयं परमात्मा (रुक्मिभिः शुभ्रेभिः अंशुभिः) दीप्तिमतीभिः स्वच्छाभिः प्रकाशमयशक्तिभिः (ईयते) सर्वत्र व्याप्नोति (सिन्धूनाम्) स्यन्दनशीलप्रकृतीनां (पतिः भवन्) पतिः सोऽस्ति ॥५॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (एषः वाजी) अनन्तबलवाला यह पूर्वोक्त परमात्मा (रुक्मिभिः) दीप्तिमती (शुभ्रेभिः) निर्मल (अंशुभिः) प्रकाशरूप शक्तियों से (ईयते) सर्वत्र व्याप्त हो रहा है (सिन्धूनाम्) स्यन्दनशील सब प्रकृतियों का (पतिः भवन्) वह पति है ॥५॥

    भावार्थ

    प्रकृति परिणामिनी नित्य है। परमात्मा की कृति अर्थात् यत्न से प्रकृति परिणामभाव को धारण करती है। उस से महत्तत्त्व और महत्तत्त्व से अहंकार और अहंकार से पञ्चतन्मात्र, इस प्रकार सृष्टि की रचना होती है। इस अभिप्राय से उसको स्यन्दनशील अर्थात् बहनेवाली प्रकृतियों का अधिपति कथन किया गया है। उक्त प्रकार के गुणोंवाला परमात्मा उस पुरुष के हृदय में अपनी अनन्त शक्तियों का आविर्भाव करता है, जो पुरुष अपनी अनन्य भक्ति से उसकी उपासना करता है ॥५॥

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    विषय

    सिन्धु-पति

    पदार्थ

    [१] (एषः) = यह सोम (वाजी) = शक्तिशाली है, हमें शक्ति-सम्पन्न करता है। यह (रुक्मिभिः) = स्वर्ण के समान देदीप्यमान (शुभ्रेभिः) = उज्ज्वल (अंशुभिः) = ज्ञान की किरणों से (ईयते) = हमें प्राप्त होता है । सोम के रक्षित होने पर हमारी ज्ञान की किरणें स्वर्ण के समान चमक उठती हैं, हमारा ज्ञान बड़ा उज्ज्वल व निर्मल होता है। [२] यह सोम (सिन्धूनाम्) = [रायः समुद्राँश्चतुरः ० ] वेदरूप चारों ज्ञान समुद्रों का (पतिः भवन्) = स्वामी बनता है सोम के रक्षण से हमारा ज्ञान उत्तरोत्तर बढ़ता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- सोमरक्षण से हम ज्ञान समुद्रों के पति बनते हैं। सोम [चन्द्रमा] से जैसे समुद्र में ज्वार आती है, इसी प्रकार सोम [वीर्य] से ज्ञान-समुद्र की तरंगे ऊँची उठती हैं ।

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    विषय

    सुसज्जित सेनापति का वर्णन ।

    भावार्थ

    (एषः) वह (वाजी) बलवान् ऐश्वर्यवान् (सिन्धूनां पतिः भवन्) महा नदीवत् धारा-वेग से जाने वाले अश्वों, अश्वारोहियों का समुद्र वत् स्वामी, नायक होकर (शुभ्रेभिः अंशुभिः) शुद्ध दीप्तियुक्त तेजों, गुणों से युक्त और (रुक्मिभिः) स्वर्णादि रुचिर, कान्तियुक्त आभूषणों वा आयुधों से सुसज्जित सहयोगियों सहित (एषः ईयते) वह जाता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    असितः काश्यपो देवलो वा ऋषिः॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्दः- १, ३ - ५, ८ निचृद गायत्री। २, ६ गायत्री॥ अष्टर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    It pervades every where by its holy brilliance of light and wide creative forces, ruling over the dynamics of the vibrating oceans of space.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    प्रकृती परिणामिनी नित्य आहे. परमात्म्याची कृती अर्थात यत्नाने प्रकृती परिणामभाव धारण करते. त्यापासून महत्तत्व व महत्तत्वापासून अहंकार व अहंकारापासून पञ्चतन्मात्र या प्रकारे सृष्टीची रचना होते. या अभिप्रायाने त्याला स्यन्दनशील अर्थात वाहणाऱ्या प्रकृतीचा अधिपती म्हटले आहे. वरील प्रकारच्या गुणांचा परमात्मा त्या पुरुषाच्या हृदयात आपल्या अनंत शक्तींचा आविर्भाव करतो, जो पुरुष आपल्या अनन्य भक्तीने त्याची उपासना करतो. ॥५॥

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