ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 16/ मन्त्र 2
ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
क्रत्वा॒ दक्ष॑स्य र॒थ्य॑म॒पो वसा॑न॒मन्ध॑सा । गो॒षामण्वे॑षु सश्चिम ॥
स्वर सहित पद पाठक्रत्वा॑ । दक्ष॑स्य । र॒थ्य॑म् । अ॒पः । वसा॑नम् । अन्ध॑सा । गो॒ऽसाम् । अण्वे॑षु । स॒श्चि॒म॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
क्रत्वा दक्षस्य रथ्यमपो वसानमन्धसा । गोषामण्वेषु सश्चिम ॥
स्वर रहित पद पाठक्रत्वा । दक्षस्य । रथ्यम् । अपः । वसानम् । अन्धसा । गोऽसाम् । अण्वेषु । सश्चिम ॥ ९.१६.२
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 16; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 6; मन्त्र » 2
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अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 6; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(दक्षस्य) चातुर्य्यदातारं (रथ्यम्) स्फूर्तिदातारम् (अन्धसा वसानम्) अन्नेभ्यो निष्पादितम् (गोषाम्) इन्द्रियाणां (अण्वेषु) सूक्ष्मशक्तिषु बलोत्पादकम् (क्रत्वा सश्चिम) एवं विधं रसं कर्मभिरहमुत्पादयेमम् ॥२॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(दक्षस्य) चतुराई का देनेवाला (रथ्यम्) स्फूर्ति का देनेवाला (अन्धसा वसानम्) अन्नों से जिसकी उत्पत्ति है (गोषाम्) इन्द्रिय को (अण्वेषु) सूक्ष्मशक्तियों में बल उत्पन्न करनेवाला रस (क्रत्वा सश्चिम) कर्मों के द्वारा हम प्राप्त करें ॥२॥
भावार्थ
जीवों की प्रार्थना द्वारा ईश्वर उपदेश करते हैं कि हे जीवों ! तुम ऐसे रस की प्राप्ति की प्रार्थना करो, जिससे तुम्हारी चतुराई बढ़े, तुम्हारी स्फूर्ति बढ़े और तुम्हारी इन्द्रियों की शक्तियाँ बढ़ें और तुम ऐश्वर्यसम्पन्न होओ ॥२॥
विषय
दक्षस्य क्रत्वा-अन्धसा
पदार्थ
[१] हम (अण्वेषु) = सूक्ष्म तत्त्वों के ज्ञान के निमित्त सोम का (सश्चिम) = अपने साथ संयुक्त करते हैं, अपने शरीर में ही समवेत करते हैं [pervade]। जो सोम (रथ्यम्) = शरीररूप रथ की स्थिरता के लिये सर्वोत्तम है। जो (अपः वसानम्) = कर्मों का धारण करनेवाला है, अर्थात् हमें खूब क्रियाशील बनानेवाला है । (गोषाम्) = जो ज्ञान की वाणियों को प्राप्त करानेवाला है, इसके द्वारा ज्ञानाग्नि तीव्र होती है और हम इन ज्ञानवाणियों के अन्तर्निहित भावों को अच्छी प्रकार समझ पाते हैं । [२] इस सोम को हम (दक्षस्य क्रत्वा) = कुशल पुरुष के कर्मों से प्राप्त करते हैं, अर्थात् कुशलतापूर्वक कर्मों में लगे रहना सोमरक्षण का उत्तम साधन है। वस्तुतः 'कार्यों को कुशलता से करना' स्वयं एक ऐसा व्यसन बन जाता है जो हमें अन्य सब व्यसनों से बचाये रखता है। व्यसन ही तो सोमरक्षण के सब से महान् विघ्न हैं । (अन्धसा) = अन्न से 'अदेनुं धो च' इस औणादिक सूत्र से यह शब्द बना है, इसका सामान्य अर्थ वह अन्न ही जो शरीर-रक्षण के लिये खाया जाता है। शतपथ ब्राह्मण के [९ । १ । २ । ४] 'अन्धसस्पते=सोमस्य पते' इन शब्दों से स्पष्ट है कि ' अन्धस्' शब्द सोम्य अन्नों के लिये ही प्रयुक्त होता है । अन्धसा=सोम्य भोजनों के द्वारा हम इस सोम का अपने में रक्षण करते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - कुशल पुरुष की तरह कर्मों में लगे रहकर और सोम्य भोजनों को अपनाकर सोम का रक्षण करते हुए हम शरीर-रथ को सुदृढ़ बनाते हैं, कर्मों में सदा व्यापृत रहते हैं, ज्ञान की वाणियों को प्राप्त करनेवाले होते हैं ।
विषय
अध्यक्ष का गुण दानशीलता
भावार्थ
(क्रत्वा) कर्मसामर्थ्य और बुद्धि-सामर्थ्य से (दक्षस्य रथ्यम्) बलवान् रथीवत् नायक और (अन्धसा अपः वसानम्) अन्न के बल पर आप्त प्रजाओं को आच्छादित अर्थात् पालन करने वाले (अण्वेषु) विद्वान् पुरुषों वा स्तुति-वचनों में (गो-साम्) भूमि आदि के दाता पुरुष को हम (सश्चिम) प्राप्त करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
असितः काश्यपो देवलो वा ऋषिः ॥ पवमानः सोमो देवता ॥ छन्दः— १ विराड् गायत्री। २, ८ निचृद् गायत्री। ३–७ गायत्री ॥ अष्टर्चं सूक्तम् ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
That delightful experience of the able practitioner born of active meditation which guides our chariot of life and adorns our actions through the soothing experiences of mind and senses, we seek through our noble karma and feel in every subtle particle of our existence and awareness.
मराठी (1)
भावार्थ
जीवांच्या प्रार्थनेद्वारे ईश्वर उपदेश करतो की हे जीवांनो! तुम्ही अशा रसाच्या प्राप्तीची प्रार्थना करा. ज्यामुळे तुमची चतुराई वाढावी. तुमची स्फूर्ती वाढावी व तुमच्या इंद्रियांची शक्ती वाढावी व तुम्ही ऐश्वर्यसंपन्न व्हावे. ॥२॥
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