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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 16 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 16/ मन्त्र 7
    ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    दि॒वो न सानु॑ पि॒प्युषी॒ धारा॑ सु॒तस्य॑ वे॒धस॑: । वृथा॑ प॒वित्रे॑ अर्षति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दि॒वः । न । सानु॑ । पि॒प्युषी॑ । धारा॑ । सु॒तस्य॑ । वे॒धसः॑ । वृथा॑ । प॒वित्रे॑ अ॒र्ष॒ति॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दिवो न सानु पिप्युषी धारा सुतस्य वेधस: । वृथा पवित्रे अर्षति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    दिवः । न । सानु । पिप्युषी । धारा । सुतस्य । वेधसः । वृथा । पवित्रे अर्षति ॥ ९.१६.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 16; मन्त्र » 7
    अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 6; मन्त्र » 7
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (पवित्रे) तस्मिन् पात्रे (पिप्युषी) तर्पयित्री (वेधसः सुतस्य धारा) मातुर्दुग्धस्य धारा वा सोमादिरसानां धारा (वृथा अर्षति) वृथैव पतति यः तद्धारापात्ररूपो मनुष्यो संयमी न भवति यथा (दिवः न सानु) अन्तरिक्षात् पर्वतोपरि पतिता मेघधारा वृथैव भवति ॥७॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (पवित्रे) उस पात्र में (पिप्युषी) तृप्ति करनेवाली (वेधसः सुतस्य धारा) माता के दूध की या सोमादि रस की धारा (वृथा अर्षति) वृषा ही गिरती है, जो इन्द्रियसंयमी नहीं है। जिस तरह (दिवः न सानु) अन्तरिक्ष से उन्नत शिखर पर मेघ की धारा गिरकर व्यर्थ ही हो जाती है ॥७॥

    भावार्थ

    परमात्मा उपदेश करते हैं कि हे शूरवीर पुरुषों ! तुम संयमी बनो, इन्द्रियारामी मत बनो। इन्द्रियारामी पुरुषों में जो सोमादि रसों की धाराएँ पड़ती हैं, वे मानों इस प्रकार पडती हैं, जिस प्रकार चोटी के ऊपर पड़ता हुआ जल इधर-उधर बह जाता है और उसमें कोई विचित्र भाव उत्पन्न नहीं करता। इसी प्रकार असंयमियों का दुग्धादि रसों का उपभोग करना है। यहाँ चोटी पर जल गिरने के दृष्टान्त से परमात्मा ने स्पष्ट रीति से बोधन कर दिया कि जो पुरुष वीर्य ही का संयम नहीं करते, न वे धीर वीर बन सकते हैं, न वे ज्ञानी विज्ञानी व ध्यानी बन सकते हैं। उक्त सब प्रकार की पदवियों के लिये मनुष्य का संयमी बनना अत्यन्त आवश्यक है। इसी अभिप्राय से योगसूत्र में कहा है कि ‘ब्रह्मचर्यप्रतिष्ठायां वीर्यलाभः’ यो० साध० ३८। ब्रह्मचर्यप्रतिष्ठा अर्थात् इन्द्रियसंयमी बनने से पुरुष को वीर्य का लाभ होता है ॥७॥

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    विषय

    ज्ञान पर्वत के शिखर पर

    पदार्थ

    [१] (सुतस्य) = उत्पन्न हुए हुए (वेधसः) = शक्ति व ज्ञान के विधाता [कर्ता] सोम की (धारा) = धारणशक्ति (दिवः सानु न) = ज्ञानपर्वत के मानो शिखर को ही (पिप्युषी) = आप्यायित करती है । सोम हमारी ज्ञानाग्नि को दीप्त करता है और हमें ज्ञान के शिखर पर ही मानो पहुँचा देता है । [२] यह सोम (पवित्रे) = पवित्र हृदय में (वृथा) = अनायास ही (अर्षति) = प्राप्त होता है। हृदय के पवित्र होने पर सोमरक्षण की कठिनता नहीं होती।

    भावार्थ

    भावार्थ - उत्पन्न हुआ हुआ सोम ज्ञानाग्नि को दीप्त करके हमें ज्ञान पर्वत के शिखर पर पहुँचा देता है । यह पवित्र हृदय में सुरक्षित रहता है।

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    विषय

    अधीन पर अनुशासन।

    भावार्थ

    (दिवः धारा सानु न) आकाश की जलधारा जिस प्रकार पर्वत के शिखर पर पड़ती है, उसी प्रकार (दिवः) तेजस्वी, (वेधसः) शासन विधान करने वाले (पवित्रे सुतस्य) राष्ट्र-पावन-कारक पद पर अभिषिक्त हुए पुरुष की (धारा) वाणी (सानु) आज्ञाकारी और वेतन-भोगी समुदाय पर (वृथा) अनायास ही (अर्षति) जाती है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    असितः काश्यपो देवलो वा ऋषिः ॥ पवमानः सोमो देवता ॥ छन्दः— १ विराड् गायत्री। २, ८ निचृद् गायत्री। ३–७ गायत्री ॥ अष्टर्चं सूक्तम् ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Just as rain showers of heaven fall upon the mountain, so do the showers of soma fulfilment and omniscience distilled through meditation fall spontaneously upon the mind and soul of the man of purity and roll in the heart.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा उपदेश करतो की हे शूर वीरांनो! तुम्ही संयमी बना इंद्रियरामी बनू नका. इंद्रियरामी माणसांमध्ये ज्या सोम इत्यादी रसाच्या धारा पडतात व जसे पर्वतशिखरावरून पडलेले पाणी इकडे तिकडे व्यर्थ वाहून जाते तसे असंयमी लोकांचे दुधाचा व इतर रसांचा उपभोग घेणे ही व्यर्थ जाते. येथे शिखरावरून पडणाऱ्या जलाच्या दृष्टांताने परमेश्वराने स्पष्ट रीतीने बोध केलेला आहे की जे पुरुष वीर्याचा संयम करत नाहीत ते धीर-वीर, ज्ञानी, विज्ञानी व ध्यानी बनू शकत नाहीत. वरील सर्व प्रकारच्या बाबींसाठी माणसाने संयमी बनणे अत्यंत आवश्यक आहे. या दृष्टीनेच योगदर्शनमध्ये म्हटलेले आहे की, ‘‘ब्रह्मचर्य प्रतिष्ठायां वीर्य-लाभ:’’ यो. साध. ३८ ब्रह्मचर्य प्रतिष्ठा अर्थात इंद्रिय संयमी बनण्याने पुरुषाला वीर्यलाभ होतो. ॥७॥

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