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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 17 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 17/ मन्त्र 3
    ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    अत्यू॑र्मिर्मत्स॒रो मद॒: सोम॑: प॒वित्रे॑ अर्षति । वि॒घ्नन्रक्षां॑सि देव॒युः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अति॑ऽऊर्मिः । म॒त्स॒रः । मदः॑ । सोमः॑ । प॒वित्रे॑ । अ॒र्ष॒ति॒ । वि॒ऽघ्नन् । रक्षां॑सि । दे॒व॒ऽयुः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अत्यूर्मिर्मत्सरो मद: सोम: पवित्रे अर्षति । विघ्नन्रक्षांसि देवयुः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अतिऽऊर्मिः । मत्सरः । मदः । सोमः । पवित्रे । अर्षति । विऽघ्नन् । रक्षांसि । देवऽयुः ॥ ९.१७.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 17; मन्त्र » 3
    अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 7; मन्त्र » 3
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (अत्यूर्मिः) विघ्नकारका अखिलसंसारबाधा अतिक्रान्तः (मत्सरः) प्रभुत्वाभिमानी (मदः) हर्षप्रदः (सोमः) उक्तपरमात्मा (रक्षांसि विघ्नन्) दुराचारान्नाशयन् (देवयुः) सत्कर्मणः वाञ्छन् (पवित्रे अर्षति) य उपासनया पात्रतां लब्धस्तस्मिन्विराजते ॥३॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (अत्यूर्मिः) विघ्न पैदा करनेवाली सम्पूर्ण संसार की बाधाओं को अतिक्रमण करनेवाला (मत्सरः) प्रभुता के अभिमानवाला (मदः) हर्षप्रद (सोमः) उक्त परमात्मा (रक्षांसि विघ्नन्) दुराचारियों को नष्ट करता हुआ और (देवयुः) सत्कर्मियों को चाहता हुआ (पवित्रे अर्षति) जो कि उपासना द्वारा पात्रता को प्राप्त है, उसमें विराजमान होता है ॥३॥

    भावार्थ

    जिस पुरुष ने ज्ञानयोग और कर्मयोग द्वारा अपने आत्मा को संस्कृत किया है, वह ईश्वर के ज्ञान का पात्र कहलाता है। उक्त पात्र के हृदय में परमात्मा अपने ज्ञान को अवश्यमेव प्रकट करता है, जैसा कि “यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा वृणुते तनूं स्वाम्” क० ३।२३। जिसको यह पात्र समझता है, उसको अपना आत्मा समझकर स्वीकार करता है ॥३॥

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    विषय

    मत्सर सोम

    पदार्थ

    [१] (सोमः) = शरीर में सुरक्षित हुआ हुआ सोम [वीर्य] (अत्यूर्मि:) = [ अतिशयितः ऊर्मिः येन ] अतिशयित उत्साह की तरंगवाला होता है । सोमरक्षण से शरीर में उत्साह बना रहता है। (मत्सरः) = यह आनन्द का संचार करनेवाला है। (मदः) = उल्लासजनक है। [२] यह सोम (पवित्रे) = पवित्र हृदयवाले पुरुष में (अर्षति) = गतिवाला होता है। यह सब (रक्षांसि) = राक्षसों को, रोगकृमियों व राक्षसी भावों को (विघ्नन्) = नष्ट करता हुआ (देवयुः) = उस देव को हमारे साथ मिलानेवाला होता है। उस देव की प्राप्ति की कामनावाला होता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- सोम सुरक्षित होकर उत्साह आनन्द व उल्लास का कारण बनता है। यह पवित्र हृदय में प्राप्त होता है। हमारे रोगकृमियों व राक्षसी भावों को नष्ट करके हमें प्रभु से मिलाता है ।

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    विषय

    निष्णात पुरुष की पवित्र पद पर प्राप्ति।

    भावार्थ

    (अति-ऊर्मिः) अति उत्साहित होकर, (मत्सरः) अति तृप्त एवं हर्षित होकर (मदः) सब को आनन्द देता हुआ, (सोमः) ऐश्वर्य युक्त, विद्या, ज्ञान, अधिकार में निष्णात होकर (देव-युः) दिव्य गुणों वा देव, प्रभु की कामना करता हुआ (रक्षांसि विघ्नन्) दुष्टों, विघ्नों का नाश करता हुआ, (पवित्रे अर्षति) पवित्र पद पर ब्रह्म में गति करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    असितः काश्यपो देवलो वा ऋषिः ॥ पवमानः सोमो देवता ॥ छन्दः- १, ३-८ गायत्री। २ भुरिग्गायत्री ॥ अष्टर्चं सूक्तम् ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Overflowing, inspiring and ecstatic, the soma joy of existence across the fluctuations of existential mind flows to humanity, destroying evil and negative tendencies and exciting divine love, and rolls in the sacred cave of the heart.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ज्या पुरुषाने ज्ञानयोग व कर्मयोगाद्वारे आपल्या आत्म्याला संस्कृत केलेले आहे. तो ईश्वराच्या ज्ञानाचे पात्र समजला जातो. त्या पात्राच्या हृदयात परमात्मा आपले ज्ञान अवश्य प्रकट करतो. जसा ‘‘यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा वृणुते तनुं स्वाम्’’ क. ३।३३ ज्याला पात्र समजतो त्याचा स्वीकार करतो. ॥३॥

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