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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 17 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 17/ मन्त्र 4
    ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    आ क॒लशे॑षु धावति प॒वित्रे॒ परि॑ षिच्यते । उ॒क्थैर्य॒ज्ञेषु॑ वर्धते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । क॒लशे॑षु । धा॒व॒ति॒ । प॒वित्रे॑ । परि॑ । सि॒च्य॒ते॒ । उ॒क्थैः । य॒ज्ञेषु॑ । व॒र्ध॒ते॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ कलशेषु धावति पवित्रे परि षिच्यते । उक्थैर्यज्ञेषु वर्धते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । कलशेषु । धावति । पवित्रे । परि । सिच्यते । उक्थैः । यज्ञेषु । वर्धते ॥ ९.१७.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 17; मन्त्र » 4
    अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 7; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    स पूर्वोक्तः परमात्मा (कलशेषु आ धावति) वेदादिवाक्येषु वाच्यतया सम्यग् विराजते (पवित्रे परिषिच्यते) पात्रे ह्यभिषिक्तो भवति (उक्थैः यज्ञेषु वर्धते) स्तुतिभिर्यज्ञेषु प्रकाश्यते ॥४॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    वह पूर्वोक्त परमात्मा (कलशेषु आ धावति) ‘कलं शवति इति कलशः’ वेदादिवाक्यों में भली-भाँति वाच्यरूप से विराजमान है (पवित्रे परिषिच्यते) और पात्र में अभिषेक को प्राप्त होता है और (उक्थैः यज्ञेषु वर्धते) स्तुतिद्वारा यज्ञों में प्रकाशित किया जाता है ॥४॥

    भावार्थ

    जब वेदवेत्ता लोग मधुर ध्वनि से यज्ञों में उक्त परमात्मा का स्तवन करते हैं, तो मानों उसका साक्षात् रूप भान होने लगता है ॥४॥

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    विषय

    कलश-शोधन

    पदार्थ

    [१] ‘कलाः शेरते अस्मिन् ' इस व्युत्पत्ति से १६ कलाओं के निवास का आधार बना हुआ यह शरीर कलश है । सोम [वीर्य] (कलशेषु) = इन शरीरों में (आधावति) = समन्तात् शोधन करनेवाला होता है [धाव् शुद्धौ] । यह सोम (पवित्रे) = पवित्र हृदय में (परिषिच्यते) = समन्तात् सिक्त होता है । हृदय में अपवित्र भावों के आने पर ही तो इसका विनाश होता है। [२] यह सोम (यज्ञेषु) = यज्ञों में, श्रेष्ठतम कर्मों में (उक्थैः) = प्रभु के स्तोत्रों के होने पर (वर्धते) = बढ़ता है। सोम का वर्धन या शरीर में स्थापन तभी हो पाता है जब कि हम यज्ञात्मक कर्मों में प्रवृत्त रहें और प्रभु का स्तवन करनेवाले बनें।

    भावार्थ

    भावार्थ - यज्ञों व स्तोत्रों में लगे रहकर हम सोम को शरीर में सुरक्षित रखें। यह हमें शुद्ध बनायेगा ।

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    विषय

    अभिषेक योग्य पुरुष के समान देहों में जीव की दशा।

    भावार्थ

    जिस प्रकार (कलशेषु धावति) अभिषेक योग्य पुरुष स्नान योग्य जल से पूर्ण कुम्भों के बीच में अपने को शुद्ध करता (पवित्रे परि सिच्यते) और अन्य जन पवित्र शासन कार्य के निमित्त उस का अभिषेक करते हैं उसी प्रकार यह जीव (कलशेषु) चेतना से युक्त देहों में (आ धावति) जाता और अपने कर्मों को भोग कर स्वच्छ होता, और (पवित्रे) परम पावन ब्रह्म में और जो अधिक (परि सिच्यते) शुद्ध होता है वह (उक्थैः यज्ञेषु वर्धते) यज्ञों, सत्संगों में उत्तम वेद-वचनों द्वारा वृद्धि को प्राप्त करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    असितः काश्यपो देवलो वा ऋषिः ॥ पवमानः सोमो देवता ॥ छन्दः- १, ३-८ गायत्री। २ भुरिग्गायत्री ॥ अष्टर्चं सूक्तम् ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    This soma of divine vitality runs and ripples in forms of life, spreads from one mind to another through the light of discrimination and waxes and rises by songs of praise in yajnas.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जेव्हा वेदवेत्ता लोक मधुर ध्वनीने यज्ञात वरील परमात्म्याचे स्तवन करतात तेव्हा जणू त्याच्या साक्षात रूपाचे भान होते. ॥४॥

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