ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 21/ मन्त्र 3
ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - विराड्गायत्री
स्वरः - षड्जः
वृथा॒ क्रीळ॑न्त॒ इन्द॑वः स॒धस्थ॑म॒भ्येक॒मित् । सिन्धो॑रू॒र्मा व्य॑क्षरन् ॥
स्वर सहित पद पाठवृथा॑ । क्रीळ॑न्तः । इन्द॑वः । स॒धऽस्थ॑म् । अ॒भि । एक॑म् । इत् । सिन्धोः॑ । ऊ॒र्मा । वि । अ॒क्ष॒र॒न् ॥
स्वर रहित मन्त्र
वृथा क्रीळन्त इन्दवः सधस्थमभ्येकमित् । सिन्धोरूर्मा व्यक्षरन् ॥
स्वर रहित पद पाठवृथा । क्रीळन्तः । इन्दवः । सधऽस्थम् । अभि । एकम् । इत् । सिन्धोः । ऊर्मा । वि । अक्षरन् ॥ ९.२१.३
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 21; मन्त्र » 3
अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 11; मन्त्र » 3
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अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 11; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
उक्तपरमात्मनि सूर्यादिविविधग्रहाः (सिन्धोः ऊर्मा) यथा सिन्धौ वीचयस्तद्वत् तत्रैवोत्पद्योत्पद्य विलीयन्ते ते च ग्रहा उपग्रहाश्च (वृथा क्रीळन्तः) यदृच्छया भ्राम्यन्ति दिवि (इन्दवः) यथा प्रकाशमया अग्नयः (सधस्थम्) यज्ञकुण्डमेत्य सङ्गच्छन्ते तथा (अभि एकमित्) एकस्मिन्नेव परमात्मनि सङ्गच्छन्ते ॥३॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
उक्त परमात्मा में विविध प्रकार के सूर्य चन्द्रमा आदि ग्रह (सिन्धोः ऊर्मा) जिस तरह सिन्धु में से लहरें उठती हैं, इस प्रकार इसी से पैदा होकर इसी में समा जाते हैं, वे ग्रह उपग्रह कैसे हैं (वृथा क्रीळन्तः) जो अनायास से भ्रमण करते हैं (इन्दवः) जिस तरह प्रकाशरूप अग्नियें (सधस्थम्) यज्ञकुण्ड में आ के प्राप्त होती हैं, इस प्रकार (अभि एकमित्) वह एक ही परमात्मा में प्राप्त होते हैं “एति गच्छतीति इत्” ॥३॥
भावार्थ
सम्पूर्ण ब्रह्माण्डों में जितने ग्रह-उपग्रह हैं, वे सब परमात्मा को ही आश्रित करते हैं ॥३॥
विषय
सधस्थ की ओर
पदार्थ
[१] (वृथा) = अनायास ही सहजस्वभाव से (क्रीडन्तः) = मेरे अन्दर क्रीडा करते हुए मुझे क्रीडक की मनोवृत्तिवाला बनाते हुए (इन्दवः) = सोमकण उस (एकम्) = अद्वितीय (सधस्थम्) = सब के मिलकर ठहरने के स्थान 'प्रभु' की (अभि) = ओर (इत्) - ही (वि अक्षरन्) = गतिवाले होते हैं। प्रभु 'सधस्थ' हैं, सारे प्राणी उस प्रभु में ही स्थित होते हैं, वे प्रभु ही सब प्राणिरूप पक्षियों के एक नीड [घोंसला] हैं। सोम के रक्षण से हम इन प्रभु को पानेवाले बनते हैं । [२] ये सोम (सिन्धोः ऊर्मा) = ज्ञान समुद्र की तरंगों पर हमें ले जानेवाले होते हैं । 'रायः समुद्राश्चतुरः 'इन शब्दों में चार वेद चार ज्ञान धन समुद्र ही हैं। इन की तरंगों पर तैरनेवाला वह व्यक्ति होता है जो कि अपने शरीर में उत्पन्न सोम का अपने में रक्षण करता है । के
भावार्थ
भावार्थ- सुरक्षित सोम हमें [क] प्रभु प्राप्ति के मार्ग पर ले चलता है, [ख] इससे हम ज्ञान समुद्र की तरंगों में तैरनेवाले होते हैं।
विषय
उनका प्रभु के प्रति विविध प्रस्थान।
भावार्थ
(इन्दवः) ऐश्वर्य से युक्त होकर (वृथा क्रीडन्तः) अनायास युद्ध क्रीड़ा करते हुए (एकम् इत् सधस्थम्) एकमात्र सहयोगी प्रभु के प्रति (सिन्धोः ऊर्मा) सिन्धु की तरङ्गवत् विशाल प्रभु के उच्च पद पर (वि अक्षरन्) विविध मार्गों से जाते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
असितः काश्यपो देवलो वा ऋषिः। पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:-१,३ विराड् गायत्री। २,७ गायत्री। ४-६ निचृद् गायत्री। सप्तर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
These streams of soma, i.e., floods of rivers, circulations and circumambulations of stars, planets and galaxies, by nature and spontaneously move from and back into the One and only One like the fire of yajna arising from and receding into the same one vedi and like the waves of the sea arising from, playing joyously on and receding into peace into the same one sea.
मराठी (1)
भावार्थ
संपूर्ण ब्रह्मांडात जितके ग्रह उपग्रह आहेत ते सर्व परमेश्वराचे आश्रित आहेत. ॥३॥
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