ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 21/ मन्त्र 7
ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
ए॒त उ॒ त्ये अ॑वीवश॒न्काष्ठां॑ वा॒जिनो॑ अक्रत । स॒तः प्रासा॑विषुर्म॒तिम् ॥
स्वर सहित पद पाठए॒ते । ऊँ॒ इति॑ । त्ये । अ॒वी॒व॒श॒न् । काष्ठा॑म् । वा॒जिनः॑ । अ॒क्र॒त॒ । स॒तः । प्र । अ॒सा॒वि॒षुः॒ । म॒तिम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
एत उ त्ये अवीवशन्काष्ठां वाजिनो अक्रत । सतः प्रासाविषुर्मतिम् ॥
स्वर रहित पद पाठएते । ऊँ इति । त्ये । अवीवशन् । काष्ठाम् । वाजिनः । अक्रत । सतः । प्र । असाविषुः । मतिम् ॥ ९.२१.७
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 21; मन्त्र » 7
अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 11; मन्त्र » 7
Acknowledgment
अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 11; मन्त्र » 7
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(वाजिनः) सर्वविधैश्वर्यवान् (त्ये एते उ) स एव पूर्वोक्तः परमात्मा (अवीवशन्) सर्वान् वशीकरोति तथा च (सतः मतिम्) सत्कर्मणां बुद्धिं (असाविषुः) शुभमार्गाभिमुखं प्रेरयति च (पराम् काष्ठाम् अक्रत) एवम्भूतः परमकाष्ठां प्रापयति ॥७॥ एकविंशतितमं सूक्तमेकादशो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(वाजिनः) सब प्रकार के ऐश्वर्यवाला (त्ये एते उ) वही पूर्वोक्त परमात्मा (अवीवशन्) सबको वश में रखता हुआ (सतः मतिम्) सत्कर्मियों की बुद्धि को (असाविषुः) शुभ मार्ग की ओर लगाता हुआ (पराम् काष्ठाम् अक्रत) परम काष्ठा को प्राप्त कराता है ॥७॥
भावार्थ
जो लोग परमात्मा की ओर झुकते हैं, अर्थात् यमनियमादि साधन सम्पन्न होकर संयमी बनते हैं, वे ब्रह्मविद्या की पराकाष्ठा को प्राप्त होते हैं। इसी अभिप्राय से उपनिषदों में यह कहा है कि ‘सा काष्ठा सा परा गतिः’ ॥७॥ यह इक्कीसवाँ सूक्त और ग्यारहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
काष्ठा प्राप्ति
पदार्थ
[१] (एते वे उ) = निश्चय से (त्ये) = वे सोमकण (अवीवशन्) = सदा हमारे हित की कामना करते हैं। हमारे रोगकृमि रूप शरीर शत्रुओं को तथा वासनारूप मानस शत्रुओं को विनष्ट करके ये हमारा हित करते हैं । [२] ये (वाजिनः) = शक्ति को देनेवाले सोमकण (काष्ठां अक्रत) = जीवन के लक्ष्य- स्थान को करनेवाले होते हैं । अर्थात् ये मनुष्य को लक्ष्य स्थानभूत प्रभु तक पहुँचानेवाले होते हैं रहेगा। 'सा काष्ठा सा परागति:' । [२] इसी उद्देश्य से ये सोम (सतः) = एक सत्पुरुष की (मतिम्) = बुद्धि को (प्रासाविषुः) = उत्पन्न करते हैं। एक सज्जन पुरुष की बुद्धि इन रक्षित सोमकणों से दीप्त हो उठती है, सूक्ष्म विषयों का वह ग्रहण करनेवाली बनती है ।
भावार्थ
भावार्थ-रक्षित सोमकण [क] हमारा हित करते हैं, [ख] हमें लक्ष्य स्थान पर पहुँचाते हैं, [ग] हमारे में सद्बुद्धि का विकास करते हैं । सूक्त का भाव एक वाक्य में यही है कि सोमरक्षण से हम प्रभु को प्राप्त करते हैं। अगले सूक्त में भी सोम की महिमा का ही वर्णन है—
विषय
साधक की ब्रह्मपद प्राप्ति
भावार्थ
(एते उ त्ये वाजिनः) ये वे सब ज्ञानवान् पुरुष बलवान् अश्वों के समान आगे बढ़ते हुए (काष्ठम् अवीवशन्) परम सीमा के समान परम सुखमयी ब्रह्मस्थिति को प्राप्त करे, ब्राह्मी दशा पर विजय प्राप्त करे। वे (सतः) सत् स्वरूप परमेश्वर के (मतिम्) ज्ञान को (प्र असाविषुः) प्राप्त करें। इत्येकादशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
असितः काश्यपो देवलो वा ऋषिः। पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:-१,३ विराड् गायत्री। २,७ गायत्री। ४-६ निचृद् गायत्री। सप्तर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Thus do these soma streams of victorious divine light and energy wish and shine and create and lead us to the supreme state of joy, and thus do they animate, inspire and fructify the thought and will of the truly wise.
मराठी (1)
भावार्थ
जे लोक परमेश्वराकडे वळतात अर्थात यमनियम इत्यादी साधनसंपन्न होऊन संयमी बनतात ते ब्रह्मविद्येची पराकाष्ठेने प्राप्ती करतात. यासाठी उपनिषदात म्हटले आहे ‘सा काष्ठा सा परागति:’
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal