ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 22/ मन्त्र 2
ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
ए॒ते वाता॑ इवो॒रव॑: प॒र्जन्य॑स्येव वृ॒ष्टय॑: । अ॒ग्नेरि॑व भ्र॒मा वृथा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठए॒ते वाताः॑ऽइव । उ॒रवः॑ । प॒र्जन्य॑स्यऽइव । वृ॒ष्टयः॑ । अ॒ग्नेःऽइ॑व । भ्र॒माः । वृथा॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
एते वाता इवोरव: पर्जन्यस्येव वृष्टय: । अग्नेरिव भ्रमा वृथा ॥
स्वर रहित पद पाठएते वाताःऽइव । उरवः । पर्जन्यस्यऽइव । वृष्टयः । अग्नेःऽइव । भ्रमाः । वृथा ॥ ९.२२.२
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 22; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 12; मन्त्र » 2
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अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 12; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(एते) इमानि सर्वाणि ब्रह्माण्डानि (उरवः वाताः इव) बहवो वायव इव (पर्जन्यस्य वृष्टयः इव) मेघस्य वृष्टिः इव च (अग्नेः भ्रमाः इव) अग्नेः ज्वाला इव च (वृथा) अनायासं भ्रमन्ति ॥२॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(एते) सब उत्पन्न हुए ब्रह्माण्ड (उरवः वाताः इव) बहुत सी वायु की तरह (पर्जन्यस्य वृष्टयः इव) और मेघ की वृष्टि के समान (अग्नेः भ्रमाः इव) अग्नि के प्रज्वलन की तरह (वृथा) अनायास गमन कर रहे हैं ॥२॥
भावार्थ
जिस प्रकार अग्नि की ज्वलनशक्ति स्वाभाविक है, इसी प्रकार वे ब्रह्माण्ड भी स्वाभाविक गतिशील बनाये गये हैं। स्वाभाविक से तात्पर्य यहाँ आकस्मिक नहीं है, किन्तु नियमपूर्वक भ्रमण का है। जैसे सूर्य चन्द्र आदि ईश्वरदत्त नियम से सदैव परिभ्रमण करते हैं, इसी प्रकार ये सब ब्रह्माण्ड ईश्वरदत्त नियम से परिभ्रमण करते हैं। इसी अभिप्राय से कहा है कि ‘भयादस्याग्निस्तपति भयात्तपति सूर्यः’ क० २।६। उस के भय से अग्नि तपती है और उसी के भय से सूर्य तपता है। जिस प्रकार इसमें ईश्वराधीनता अग्न्यादि तत्त्वों की वर्णन की गयी है, इसी प्रकार सब कार्यजात ईश्वराधीन है ॥२॥
विषय
'वायु पर्जन्य व अग्नि' के समान
पदार्थ
[१] (एते) = ये सोम (उखः वाताः इव) = विशाल वायुवों के समान हैं। तीव्र गतिवाली वायुओं के समान ये सोम हमें शक्ति सम्पन्न बनाकर तीव्र गतिवाला करते हैं । [२] ये सोम (पर्जन्यस्य वृष्टयः इव) = मेघों की वृष्टि के समान हैं। जैसे यह वृष्टि सन्ताप का हरण करनेवाली है, उसी प्रकार ये सुरक्षित सोम हमारे रोगादि का हरण करके हमें शान्ति को देनेवाले हैं । [३] ये सोम (वृथा) = अनायास ही जब शरीर में व्याप्त होते हैं, अर्थात् जब शरीर में ये स्वभावतः ऊर्ध्वगतिवाले होते हैं तो (अग्नेः भ्रमाः इव) = अग्नि की आकाश में भ्रान्त होनेवाली लपटों के समान होते हैं। जैसे अग्नि की लपटें प्रकाशमान होती हैं, उसी प्रकार इस सोमरूप ईंधन से ज्ञानाग्नि की ज्वालायें प्रज्वलित होती हैं, ज्ञानाग्नि दीप्त हो उठती है ।
भावार्थ
भावार्थ- सोमकण शरीर में वायु के समान शक्ति व गति को, मन में पर्जन्य के समान सन्तापशून्यता को तथा मस्तिष्क में अग्नि के समान ज्ञानाग्नि की उज्ज्वलता को पैदा करते हैं ।
विषय
वायुओं के समान उदार होना।
भावार्थ
(एते) ये (वाता इव उरवः) महावायुओं के समान बलशाली और (पर्जन्यस्य वृष्टयः इव) मेघ की वृष्टियों के समान उदार दानशील और (अग्नेः भ्रमाः इव) अग्नि के मोड़दार लपटों के समान (वृथा) अनायास तेजस्वी हों।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
असितः काश्यपो देवलो वा ऋषिः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:- १, २ गायत्री। ३ विराड् गायत्री। ४-७ निचृद गायत्री॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
These streams like winds of storm, torrents of rain and flames of fire roar and press forward without effort, spontaneously in their element.
मराठी (1)
भावार्थ
ज्या प्रकारे अग्नीची ज्वलन शक्ती स्वाभाविक आहे त्याच प्रकारे ब्रह्मांडही स्वाभाविक गतिशील बनविलेले आहेत. स्वाभाविकचा अर्थ येथे आकस्मिक नाही तर नियमपूर्वक भ्रमण आहे. जसे सूर्य-चंद्र इत्यादी ईश्वरदत्त नियमाने परिभ्रमण करतात त्या दृष्टीने म्हटले आहे की, ‘भयादस्याग्निस्तपति भयात्तपति सूर्य:’ क. २।६ त्याच्या भयाने अग्नी तापतो व त्याच्या भयानेच सूर्य तापतो. ज्या प्रकारे अग्नी इत्यादी तत्त्वाच्या वर्णनाने ईश्वराधीनता दर्शविलेली आहे. त्याच प्रकारे सर्व कार्यही ईश्वराधीन आहे. ॥२॥
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