ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 22/ मन्त्र 4
ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
ए॒ते मृ॒ष्टा अम॑र्त्याः ससृ॒वांसो॒ न श॑श्रमुः । इय॑क्षन्तः प॒थो रज॑: ॥
स्वर सहित पद पाठए॒ते । मृ॒ष्टाः । अम॑र्त्याः । स॒सृ॒ऽवांसः॑ । न । श॒श्र॒मुः॒ । इय॑क्षन्तः । प॒थः । रजः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
एते मृष्टा अमर्त्याः ससृवांसो न शश्रमुः । इयक्षन्तः पथो रज: ॥
स्वर रहित पद पाठएते । मृष्टाः । अमर्त्याः । ससृऽवांसः । न । शश्रमुः । इयक्षन्तः । पथः । रजः ॥ ९.२२.४
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 22; मन्त्र » 4
अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 12; मन्त्र » 4
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अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 12; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(मृष्टाः) भास्वराः (अमर्त्याः) नक्षत्रगणाः (पथः रजः) रजोगुणेन मार्गं (इयक्षन्तः) प्राप्तुमिच्छन्तः (ससृवांसः) अत्यन्तसरणशीलाः (न शश्रमुः) विश्रामं न लभन्ते ॥४॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(मृष्टाः) भास्वररूप (अमर्त्याः) नक्षत्रगण (पथः रजः) रजोगुण से मार्ग को (इयक्षन्तः) प्राप्त होनेवाले (ससृवांसः) चलते हुए (न शश्रमुः) विश्राम को नहीं पाते ॥४॥
भावार्थ
यों तो संसार में दिव्यादिव्य अनेक प्रकार के नक्षत्र हैं, पर जो दिव्य नक्षत्र हों, उनकी ज्योति प्रतिपल सहस्त्रों मील चलती हुई भी अभी तक इस भूगोल के साथ स्पर्श नहीं करने पायी। तात्पर्य यह है कि इस दिव्यरचनारूप ब्रह्माण्डों की इयत्ता को पाना परमात्मा का काम ही है, खद्योतकल्प क्षुद्र जीव केवल इनकी रचना को कुछ-कुछ अनुभव करता है, सब नहीं। हाँ योगी जन जो परमात्मा के योग में रत हैं, वे लोग साधारण लोगों से परमात्मा की रचना को अधिक अनुभव करते हैं। इसी अभिप्राय से वेद में अन्यत्र भी यह कहा है कि ‘को अद्धा वेद क इह प्रवोचत् कुत आजाता कुत इयं विसृष्टिः’ १०।११।१३० कौन जान सकता है और कौन कह सकता है कि यह विविध प्रकार की सृष्टि परमात्मा ने कहाँ से और किस शक्ति से किस समय उत्पन्न की। इससे आगे यह निरूपण किया है कि इसका पूर्णरूप से ज्ञाता वह परमात्मा ही है, कोई अन्य नहीं। इसी अभिप्राय से ‘परिच्छिन्नं न सर्वोपादानम्’ सां० १।७६॥ इत्यादि सूत्रों में साख्यशास्त्र में प्रकृति को विभु माना है, पर वहाँ यह व्यवस्था समझनी चाहिये कि प्रकृति सापेक्ष विभु है अर्थात् अन्य कार्यों की अपेक्षा विभु है। वास्तव में इयत्तारहित विभु एकमात्र परमात्मा ही है, कोई अन्य वस्तु नहीं ॥४॥
विषय
सुपथ व उत्तम लोक
पदार्थ
[१] गत मन्त्र में जो भाव 'एते पूता:' इन शब्दों से कहा गया था, वही भाव यहाँ 'एते मृष्टा:' इन शब्दों में कहा गया है। 'मृजू शुद्धौ' (मृष्टाः) = शुद्ध रखे गये (एते) = ये सोम (अमर्त्याः) = हमें रोगादि से मृत्यु का शिकार नहीं होने देते । (ससृवांसः) = निरन्तर गति करते हुए ये सोमकण (न शश्रमुः) = थकते नहीं। ये सोमकण रक्षित होने पर हमें अनथक श्रमशील बनाते हैं। [२] ये सोमकण (पथः) = मार्गों को व (रजः) = उत्तम लोकों को (इयक्षन्तः) = हमारे साथ संगत करनेवाले होते हैं। सोमकणों के रक्षण के होने पर मनुष्य स्वभावतः सुपथ का आक्रमण करता है और उत्तम लोक की प्राप्ति का अधिकारी बनता है।
भावार्थ
भावार्थ- सोमकण हमें [क] रोगों से मरने नहीं देते, [ख] ये हमें अनथक श्रमवाला बनाते हैं। [ग] उत्तम मार्गों की ओर हमारा झुकाव करते हैं, [घ] हमें उत्तम लोकों की प्राप्ति का अधिकारी बनाते हैं।
विषय
उनका अनथक जीवन-मार्ग में चलना।
भावार्थ
(एते) वे विद्वान् ज्ञानवान्, एवं जीवात्मा गण, (मृष्टाः) शुद्ध, (अमर्त्याः) मरणरहित, साधारण मर्त्य देहियों से भिन्न, (ससृवांसः) निरन्तर भ्रमण करते हुए और (रजः पथः इयक्षन्तः) मार्गों और नाना लोकों को प्राप्त होना चाहते हुए भी (न शश्रमुः) नहीं थकते।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
असितः काश्यपो देवलो वा ऋषिः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:- १, २ गायत्री। ३ विराड् गायत्री। ४-७ निचृद गायत्री॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
All these, sparkling pure immortals ever on the move tire not. Pure energy they are, restless, eager to traverse the paths of space.
मराठी (1)
भावार्थ
जगात दिव्यादिव्य अनेक प्रकारची नक्षत्रे आहेत; पण जी दिव्य नक्षत्रे आहेत त्यांची ज्योती प्रत्येक क्षणी हजारो मैल गमन करून ही या भूगोलाला स्पर्शही करत नाहीत.
टिप्पणी
तात्पर्य हे की या दिव्यरचना रूपी ब्रह्मांडाची सीमा जाणणे परमेश्वराचे काम आहे. खद्योतकल्प क्षुद्र जीव केवळ त्याच्या रचनेचा थोडासा अनुभव घेऊ शकतो, संपूर्ण नाही. योगी जे परमेश्वराच्या योगात रत असतात ते सामान्य लोकांपेक्षा परमेश्वराच्या रचनेचा अधिक अनुभव घेऊ शकतात. त्यामुळे वेदात अन्यत्रही हे म्हटलेले आहे की ‘को अद्धा वेद क इह प्रवोचत कुतो विज्ञाता कुत इयं विसृष्टि:’ १०।११।१३० कोण हे जाणू शकतो व कोण हे सांगू शकतो की ही विविध प्रकारची सृष्टी परमेश्वराने कुठून व कोणत्या शक्तीने कोणत्या वेळी उत्पन्न केलेली आहे. त्यापुढे हे निरूपण केलेले आहे. याचा पूर्ण जाणकार परमेश्वरच आहे दुसरा कोणी नाही. यामुळेच ‘परिच्छिन्नं न सर्वोपादानम् ’ सां. १।७६ इत्यादी सांख्यशास्त्रातील सूत्रात प्रकृतीला विभू मानलेले आहे. तेथेही व्यवस्था समजली पाहिजे की प्रकृती सापेक्ष विभू आहे. अर्थात अन्य कार्यापेक्षा विभू आहे. वास्तविक सीमारहित एकमेव परमेश्वरच आहे, दुसरी कोणतीच वस्तू नाही. ॥४॥
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