ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 22/ मन्त्र 5
ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
ए॒ते पृ॒ष्ठानि॒ रोद॑सोर्विप्र॒यन्तो॒ व्या॑नशुः । उ॒तेदमु॑त्त॒मं रज॑: ॥
स्वर सहित पद पाठए॒ते । पृ॒ष्ठानि॑ । रोद॑सोः । वि॒ऽप्र॒यन्तः॑ । वि । आ॒न॒शुः॒ । उ॒त । इ॒दम् । उ॒त्ऽत॒मम् । रजः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
एते पृष्ठानि रोदसोर्विप्रयन्तो व्यानशुः । उतेदमुत्तमं रज: ॥
स्वर रहित पद पाठएते । पृष्ठानि । रोदसोः । विऽप्रयन्तः । वि । आनशुः । उत । इदम् । उत्ऽतमम् । रजः ॥ ९.२२.५
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 22; मन्त्र » 5
अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 12; मन्त्र » 5
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अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 12; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(एते) एतानि नक्षत्राणि (रोदसोः पृष्ठानि) द्यावापृथिव्योर्मध्यगतानि (विप्रयन्तः) गच्छन्ति सन्ति (इदम् उत्तमम् रजः) एतमुत्तमं रजोगुणं (उत व्यानशुः) व्याप्नुवन्ति ॥५॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(एते) ये सब नक्षत्रादि (रोदसोः पृष्ठानि) पृथिवी और द्युलोक के मध्य में (विप्रयन्तः) चलते हुए (इदम् उत्तमम् रजः) इस उत्तम रजोगुण को (उत व्यानशुः) व्याप्त होते हैं ॥५॥
भावार्थ
उक्त ब्रह्माण्डों की विविध रचना में परमात्मा ने इस प्रकार का आकर्षण और विकर्षण उत्पन्न किया है, जिसमें एक दूसरे के आश्रित होकर प्रतिक्षण गतिशील बन रहे हैं। वा यों कहो कि सत्त्व रज और तम प्रकृति के ये तीनों गुण अर्थात् प्रकृति की ये तीनों अवस्थायें जिस प्रकार एक दूसरे का आश्रयण करती हैं, इस प्रकार एक दूसरे को आश्रयण करता हुआ प्रत्येक ब्रह्माण्ड इस नभोमण्डल में वायुवेग से उत्तेजित तृण के समान प्रतिक्षण चल रहा है, कोई स्थिर नहीं ॥५॥
विषय
द्यावापृथिवी के पृष्ठ पर
पदार्थ
[१] (एते) = ये सोमकण (रोदसोः) = द्यावापृथिवी के (पृष्ठानि) = पृष्ठों को, शिखरों को (विप्रयन्तः) = विशेषरूप से प्राप्त होते हुए (व्यानशुः) = शरीर में व्याप्त होते हैं [अशू व्याप्तौ ] । द्यावापृथिवी के शिखरों पर जाने का भाव यह है कि मस्तिष्क व शरीर की उन्नति करना । सोमकण रोगकृमियों को नष्ट करके शरीर को स्वस्थ बनाते हैं, और मस्तिष्क की ज्ञानाग्नि को दीप्त करते हैं । [२] (उत) = और इस प्रकार शारीरिक व बौद्धिक उन्नति के द्वारा ये सोमकण (इदम्) = इस (उत्तमं रजः) = उत्तम लोक को व्याप्त करनेवाले होते हैं। सोमरक्षण से अन्ततः सर्वोत्तम लोक, अर्थात् ब्रह्मलोक की प्राप्ति होती है । यह सोम [वीर्य] उस सोम [प्रभु] की प्राप्ति का कारण बनता है ।
भावार्थ
भावार्थ- सुरक्षित सोम हमें शारीरिक व बौद्धिक उन्नति के शिखर पर ले जाता हुआ ब्रह्मलोक को प्राप्त कराता है।
विषय
उनकी उत्तम पद प्राप्ति।
भावार्थ
(एते) वे (रोदसोः पृष्ठानि) आकाश और भूमि के नाना स्थानों को (वि-प्रयन्तः) विशेष प्रकार से प्राप्त होते हुए (उत) और (इदम् उत्तमं रजः) उस उत्तम लोक को भी (वि आनशुः) विशेष रूप से प्राप्त होते हैं। अर्थात् ज्ञानी जन इस आकाश और पृथ्वी के बीच भोग्य और ऐश्वर्य के लोकों के अतिरिक्त मुक्तिप्रद ब्रह्म को भी प्राप्त होते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
असितः काश्यपो देवलो वा ऋषिः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:- १, २ गायत्री। ३ विराड् गायत्री। ४-७ निचृद गायत्री॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Pressing forward on the journey all round, they cross the regions of heaven and earth and then reach the highest pinnacle of light and space in existence.
मराठी (1)
भावार्थ
ब्रह्मांडाच्या विविध रचनेत परमेश्वराने या प्रकारचे आकर्षण व विकर्षण उत्पन्न केलेले आहे. ज्यामध्ये एक दुसऱ्याचे आश्रित होऊन ते प्रतिक्षण गतिशील बनत आहेत किंवा असे म्हणता येईल की सत्त्व, रज, तम हे प्रकृतीचे तीन गुण अर्थात प्रकृतीच्या या तीन अवस्था ज्या प्रकारे एक दुसऱ्याचा आश्रय घेतात त्या प्रकारे एक दुसऱ्याचा आश्रय घेत प्रत्येक ब्रह्मांड या नभोमंडळात वायुवेगाने उत्तेजित तृणाप्रमाणे प्रतिक्षण चालत आहे. कोणी स्थिर नाही. ॥५॥
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