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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 25 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 25/ मन्त्र 3
    ऋषिः - दृळहच्युतः आगस्त्यः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    सं दे॒वैः शो॑भते॒ वृषा॑ क॒विर्योना॒वधि॑ प्रि॒यः । वृ॒त्र॒हा दे॑व॒वीत॑मः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सम् । दे॒वैः । शो॒भ॒ते॒ । वृषा॑ । क॒विः । योनौ॑ । अधि॑ । प्रि॒यः । वृ॒त्र॒ऽहा । दे॒व॒ऽवीत॑मः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सं देवैः शोभते वृषा कविर्योनावधि प्रियः । वृत्रहा देववीतमः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सम् । देवैः । शोभते । वृषा । कविः । योनौ । अधि । प्रियः । वृत्रऽहा । देवऽवीतमः ॥ ९.२५.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 25; मन्त्र » 3
    अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 15; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    सर्वजगज्जनकः स परमात्मा (देवैः) दिव्यशक्तिभिः (सम् शोभते) द्योततेतरां (वृषा) सर्वकामदः (कविः) सर्वज्ञः (योनौ अधि) प्रकृतिरूपायां योनौ अधिष्ठानरूपेण विराजमानः (प्रियः) सर्वप्रियः (वृत्रहा) अज्ञानध्वंसकः (देववीतमः) विदुषां हृदये प्रकाशरूपेण विराजमानश्चास्ति ॥३॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    सर्वजगत् का उत्पादक वह परमात्मा (देवैः) दिव्यशक्तियों के द्वारा (सम् शोभते) शोभा को प्राप्त हो रहा है (वृषा) सब कामनाओं का देनेवाला है (कविः) सर्वज्ञ (योनौ अधि) प्रकृतिरूप योनि में अधिष्ठित अर्थात् अधिष्ठानरूप से जो विराजमान है (प्रियः) वह सर्वप्रिय और (वृत्रहा) अज्ञान का नाश करनेवाला (देववीतमः) विद्वानों के हृदय में प्रकाशरूप से विराजमान है ॥३॥

    भावार्थ

    यद्यपि परमात्मा सर्वत्र परिपूर्ण है, तथापि उसको साक्षात् करनेवाले विद्वानों के हृदय में विशेषरूप से विराजमान है। इसी अभिप्राय से गीता में कहा है कि “नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः” माया के सम्बन्ध के कारण परमात्मा सबको अपने-२ हृदय में प्रतीत नहीं होता, वरन् सबके हृदय में आकाशवत् परिपूर्णरूप से विराजमान है ॥३॥

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    विषय

    वृषा-कविः

    पदार्थ

    [१] (वृषा) = हमें शक्तिशाली बनानेवाला सोम (देवैः सं शोभते) = दिव्य गुणों के साथ शोभायमान होता है। यह हमारे में दिव्य गुणों का वर्धन करता है । (कविः) = हमें क्रान्तप्रज्ञ बनाता है । एवं 'वृषा' सोम हमें शक्ति की प्राप्ति कराता है। 'कवि' सोम हमें क्रान्तप्रज्ञ बनानेवाला है। हमारे मनों को यह दिव्य गुणों से युक्त करता है। [२] (योनौ) = यह सोम हमें मूल उत्पत्ति-स्थान प्रभु में (अधिप्रियः) = आधिक्येन प्रीतिवाला करता है । [२] (वृत्रहा) = प्रभु में प्रीति के द्वारा ही यह वासनाओं को विनष्ट करता है और (देववीतमः) = दिव्य गुणों को अधिक से अधिक प्राप्त करानेवाला है । वासनाओं के विनाश से ही सद्गुणों का विकास होता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- सुरक्षित सोम हमें शक्तिशाली व ज्ञानी बनाता है ।

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    विषय

    सर्वश्रेष्ठ क्रान्तदर्शी व्यापक आत्मा।

    भावार्थ

    वह (कविः) जड़ पदार्थों को पार करके देखने वाला, (प्रियः) अपने को बहुत प्रिय (वृषा) बलवान्, आत्मा (योनौ अधि) देह पर शासक होकर (देवैः) अर्थप्रकाशक इन्द्रियों सहित, सहायकों सहित राजा के समान (शोभते) शोभा देता है। वह (वृत्रहा) बाधक अज्ञान दुःखादि को नाश करता और (देव-वीतमः) सब इन्द्रिय गत प्राणों चक्षु आदि सब से अधिक कान्तियुक्त, सर्वश्रेष्ठ है। (२) इसी प्रकार प्रभु विश्व पर अध्यक्षवत् जल, तेज आदि सहित विराजमान है। वह अन्धकार का नाशक और सूर्यादि का भी प्रकाशक है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    दृढ़च्युतः आगस्त्य ऋषिः॥ पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:– १, ३, ५, ६ गायत्री। २, ४ निचृद गायत्री॥ षडृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Soma, omniscient poetic creator, generous and dear, dearest of divinities and destroyer of the evil and darkness of life, vibrating in the cave of the heart shines glorious in the soul and reflects beatific with the senses, mind, intelligence and will in the conduct and grace of the human personality.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जरी परमात्मा सर्वत्र परिपूर्ण आहे तरीही त्याचा साक्षात्कार करणाऱ्या विद्वानांच्या हृदयात विशेषरूपाने विराजमान आहे. याच अभिप्रायाने गीतेत म्हटले आहे की ‘‘नाहं प्रकाश: सर्वस्य योगमायासमावृत:’’ मायेमुळे परमात्मा सर्वांना आपापल्या हृदयात प्रतीत होत नाही. वास्तविक सर्वांच्या हृदयात आकाशाप्रमाणे परिपूर्ण रूपाने विराजमान आहे. ॥३॥

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