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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 25 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 25/ मन्त्र 6
    ऋषिः - दृळहच्युतः आगस्त्यः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    आ प॑वस्व मदिन्तम प॒वित्रं॒ धार॑या कवे । अ॒र्कस्य॒ योनि॑मा॒सद॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । प॒व॒स्व॒ । म॒दि॒न्ऽत॒म॒ । प॒वित्र॑म् । धार॑या । क॒वे॒ । अ॒र्कस्य॑ । योनि॑म् । आ॒ऽसद॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ पवस्व मदिन्तम पवित्रं धारया कवे । अर्कस्य योनिमासदम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । पवस्व । मदिन्ऽतम । पवित्रम् । धारया । कवे । अर्कस्य । योनिम् । आऽसदम् ॥ ९.२५.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 25; मन्त्र » 6
    अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 15; मन्त्र » 6
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (अर्कस्य) ज्ञानरूपप्रकाशस्य (योनिम्) स्थानं (आसदम्) प्राप्तुं (मदिन्तम) हे आनन्दस्वरूप भगवन् ! (धारया) आनन्दवृष्ट्या (पवित्रम्) मां पुनीहि। (कवे) हे सर्वद्रष्टः ! त्वं (आपवस्व) सर्वतो मां पवित्रय ॥६॥ इति पञ्चविंशतितमं सूक्तं पञ्चदशो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (अर्कस्य) ज्ञानरूप प्रकाश के (योनिम्) स्थान की (आसदम्) प्राप्ति के लिये (मदिन्तम) हे आनन्दस्वरूप भगवन् ! आप (धारया) आनन्द की वृष्टि द्वारा (पवित्रम्) हमको पवित्र करें (कवे) हे सर्वद्रष्टः ! (आपवस्व) सब ओर से आप हमको पवित्र करें ॥६॥

    भावार्थ

    जो लोग शुद्ध हृदय से परमात्मा की उपासना करते हैं, उनके हृदय में ज्ञान का प्रकाश अवश्यमेव होता है। वे लोग सूर्य्य के समान प्रकाशमान होते हैं ॥६॥ यह पच्चीसवाँ सूक्त और पन्द्रहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    अर्कस्य योनिमासदम्

    पदार्थ

    [१] हे (कवे) = क्रान्तप्रज्ञ ! बुद्धि को सूक्ष्म बनानेवाले ! (मदिन्तम) = अत्यन्त हर्षयुक्त जीवन को उल्लासमय बनानेवाले सोम ! तू (धारया) = अपनी धारण शक्ति से (पवित्रम्) = इस पवित्र हृदयवाले पुरुष को (आपवस्व) = सर्वथा प्राप्त हो। [२] तू अन्ततः (अर्कस्य) = उस अर्चनीय प्रभु के (योनिम्) = स्थान को (आसदम्) = प्राप्त होने के लिये हो । तेरे रक्षण से सूक्ष्म बुद्धिवाले बनकर हम प्रभु का दर्शन करनेवाले बनें ।

    भावार्थ

    भावार्थ- सोम सुरक्षित होकर हमें पवित्र बनाता हुआ प्रभु की प्राप्ति का पात्र बनाता है। इस सोम को सुरक्षित करनेवाला व्यक्ति 'दार्दच्युत: 'दृढ़ भी काम-क्रोध आदि शत्रुओं को च्युत करनेवाला तथा इध्यवाहः - ज्ञान की दीतियों को धारण करनेवाला बनता है । यही अगले सूक्त का ऋषि है और कहता है कि-

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    विषय

    साधनाओं के पश्चात् उपासक को मोक्षलोक की प्राप्ति।

    भावार्थ

    हे (मदिन्तम) अति आनन्द देने वाले आत्मन् ! (कवे) हे क्रान्तदर्शिन् विद्वन् ! मेधाविन् ! तू (धारया) वाणी द्वारा (पवित्रं) अति पवित्र और अन्य को पवित्र करने वाले प्रभु को (आ पवस्व) प्राप्त हो और (अर्कस्य योनिम्) अर्चना करने योग्य उस परमेश्वर के आश्रय को (आसदम्) प्राप्त करने के लिये तू वाणी से स्तुति कर। इति पञ्चदशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    दृढ़च्युतः आगस्त्य ऋषिः॥ पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:– १, ३, ५, ६ गायत्री। २, ४ निचृद गायत्री॥ षडृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O Soma, most exuberant poetic omnipresence, come in a wave of ecstasy and majesty to bless the pure heart of the celebrant which is the seat of the soul and of the golden glow of divinity.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे लोक शुद्ध हृदयाने परमेश्वराची उपासना करतात त्यांच्या हृदयात ज्ञानाचा प्रकाश अवश्य होतो. ते लोक सूर्याप्रमाणे प्रकाशमान होतात.॥६॥

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