ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 27/ मन्त्र 6
ए॒ष शु॒ष्म्य॑सिष्यदद॒न्तरि॑क्षे॒ वृषा॒ हरि॑: । पु॒ना॒न इन्दु॒रिन्द्र॒मा ॥
स्वर सहित पद पाठए॒षः । शु॒ष्मी । अ॒सि॒स्य॒द॒त् । अ॒न्तरि॑क्षे । वृषा॑ । हरिः॑ । पु॒ना॒नः । इन्दुः॑ । इन्द्र॑म् । आ ॥
स्वर रहित मन्त्र
एष शुष्म्यसिष्यददन्तरिक्षे वृषा हरि: । पुनान इन्दुरिन्द्रमा ॥
स्वर रहित पद पाठएषः । शुष्मी । असिस्यदत् । अन्तरिक्षे । वृषा । हरिः । पुनानः । इन्दुः । इन्द्रम् । आ ॥ ९.२७.६
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 27; मन्त्र » 6
अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 17; मन्त्र » 6
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अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 17; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(एषः) अयं (शुष्मी) बलवान् परमात्मा (अन्तरिक्षे असिष्यदत्) सर्वमन्तरिक्षं व्याप्नोति (वृषा) सर्वकामप्रदः (हरिः) दुखस्य हर्ता (पुनानः) सर्वस्य पविता (इन्दुः) सर्वत्र प्रकाशमानः (इन्द्रम् आ) कर्मयोगिपुरुषान् प्राप्नोति ॥६॥ इति सप्तविंशतितमं सूक्तं सप्तदशो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(एषः) यह (शुष्मी) बलवान् परमात्मा (अन्तरिक्षे असिष्यदत्) अन्तरिक्ष में सर्वत्र व्याप्त हो रहा है (वृषा) सब कामनाओं का देनेवाला और (हरिः) दुख का हरनेवाला, (पुनानः) सबको पवित्र करनेवाला, (इन्दुः) सर्वत्र प्रकाशमान, (इन्द्रम् आ) कर्मयोगी पुरुष को प्राप्त होता है ॥६॥
भावार्थ
सच्चिदानन्दस्वरूप ब्रह्म जो सर्वव्यापक और सब कामनाओं का देनेवाला है, वह अपने निवास का स्थान एकमात्र कर्मयोगी पुरुषों को समझता है। यद्यपि ब्रह्म सर्वव्यापक है, तथापि विशेषाभिव्यक्ति उसकी कर्मयोगियों के हृदय में ही होती है, अन्यत्र नहीं। तात्पर्य यह है कि कर्मयोगी पुरुष अपने कर्मों द्वारा उसकी आज्ञाओं को पालन करके दिखला देता है, अन्य लोग आलस्य में पड़े-पड़े ही समय को बिता देते हैं, इसलिये इस मन्त्र में कर्मयोगी पुरुष को ज्ञान का मुख्यपात्र निरूपण किया गया है ॥६॥ यह २७ वाँ सूक्त और १७ वाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
वृषा हरि
पदार्थ
[१] (एषः) = यह सोम (शुष्मी) = शत्रु-शोषक बलवाला है । (अन्तरिक्षे) = अन्तरिक्ष में [अन्तराक्षि] मध्यमार्ग में यह (असिष्यदत्) = शरीर के अन्दर प्रवाहित होनेवाला होता है। अर्थात् जब हम अतिभोजन आदि से हटकर सदा नपी-तुली क्रियाओंवाले होते हैं तो यह हमारे अन्दर सुरक्षित रहता है । उस समय यह (वृषा) = हमें शक्तिशाली बनाता है और (हरि:) = हमारे सब रोगों का हरण करता है । [२] (पुनानः) = पवित्र करता हुआ यह (इन्दुः) = सोम [वीर्य] (इन्द्रम्) = जितेन्द्रिय पुरुष को (आ) = समन्तात् प्राप्त होता है। जितेन्द्रिय पुरुष इसका अपने में रक्षण करता है। रक्षित हुआ हुआ यह उसके जीवन को आधि-व्याधियों से शून्य पवित्र बनाता है।
भावार्थ
भावार्थ- सोम हमारे शरीर के अन्दर के शत्रुओं को नष्ट करता है। इस सोम के रक्षण से बुद्धि भी तीव्र बनती है । सो सोम का रक्षक 'प्रियमेध' [प्रिया मेधा यस्मै ] होता है । सोम का वर्णन करता हुआ प्रियमेध कहता है-
विषय
उसकी सूर्य के समान स्थिति।
भावार्थ
(एषः) वह (शुष्मी) वायुवत् बलशाली (वृषा) मेघवत् सुखों का वर्षक, (इन्द्रः) चन्द्रमा के समान कान्तिमान् (हरिः) सूर्यवत् अन्धकारादि का नाशक होकर (अन्तरिक्षे) सब के अन्तःकरण में (पुनानः) अभिषिक्त हो कर (इन्द्रम् आ असिष्यदत्) ऐश्वर्ययुक्त राज-पद को प्राप्त करता है। इति सप्तदशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
नृमेध ऋषिः॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:– १, ६ निचृद् गायत्री। ३–५ गायत्री॥ षडृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
This Soma Spirit of eternal joy is omnipotent, all pervasive in space, infinitely generous, eliminator of suffering, and, purifying and sanctifying the human soul, it is the ultimate bliss of existence.
मराठी (1)
भावार्थ
जो सर्वव्यापक व सर्व कामना पूर्ण करणारा सच्चिदानंद स्वरूप ब्रह्म आहे. तो आपले निवासस्थान एकमात्र कर्मयोगी पुरुषांना समजतो. जरी ब्रह्म सर्वव्यापक आहे तरी त्याची विशेष अभिव्यक्ती कर्मयोग्यांच्या हृदयातच होते. इतरत्र नाही. तात्पर्य हे की कर्मयोगी पुरुष आपल्या कर्माद्वारे त्याच्या आज्ञांचे पालन करतो. इतर लोक आळशी असतात. त्यासाठी या मंत्रात कर्मयोगी पुरुषाला ज्ञानाचे मुख्य पात्र म्हटलेले आहे. ॥६॥
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