ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 29/ मन्त्र 4
विश्वा॒ वसू॑नि सं॒जय॒न्पव॑स्व सोम॒ धार॑या । इ॒नु द्वेषां॑सि स॒ध्र्य॑क् ॥
स्वर सहित पद पाठविश्वा॑ । वसू॑नि । स॒म्ऽजय॑न् । पव॑स्व । सो॒म॒ । धार॑या । इ॒नु । द्वेषां॑सि । स॒ध्र्य॑क् ॥
स्वर रहित मन्त्र
विश्वा वसूनि संजयन्पवस्व सोम धारया । इनु द्वेषांसि सध्र्यक् ॥
स्वर रहित पद पाठविश्वा । वसूनि । सम्ऽजयन् । पवस्व । सोम । धारया । इनु । द्वेषांसि । सध्र्यक् ॥ ९.२९.४
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 29; मन्त्र » 4
अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 19; मन्त्र » 4
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अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 19; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(सोम) हे परमात्मन् ! (विश्वा वसूनि सञ्जयन्) भवान् मदर्थं समस्तं धनाद्यैश्वर्य्यं वर्द्धयन् (धारया पवस्व) आनन्दवृष्ट्या मां पुनीहि (इनु द्वेषांसि सध्र्यक्) सर्वप्रकारं द्वेषमपि निराकुरु ॥४॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(सोम) हे परमात्मन् ! (विश्वा वसूनि सञ्जयन्) आप मेरे लिये सम्पूर्ण धनादि ऐश्वर्य को बढ़ा कर (धारया पवस्व) आनन्द की वृष्टि से हम को पवित्र करिये (इनु द्वेषांसि सध्र्यक्) और सब प्रकार के द्वेषों को भी साथ ही दूर करिये ॥४॥
भावार्थ
इस मन्त्र में इस बात का उपदेश किया है कि जो पुरुष अपना अभ्युदय चाहे, वह रागद्वेषरूपी समुद्र की लहरों में कदापि न पड़े। क्योंकि जो लोग राग-द्वेष के प्रवाह में पड़कर बह जाते हैं, वे आत्मिक सामाजिक तथा शारीरिक तीनों की उन्नतियों को नहीं कर सकते, इसलिये पुरुष को चाहिये कि वह राग-द्वेष के भावों से सर्वथा दूर रहे ॥४॥
विषय
वसु विजय व द्वेष निराकरण
पदार्थ
[१] हे (सोम) = सोम [वीर्यशक्ते!] (विश्वा वसूनि) = सब वसुओं को (संजयन्) = विजय करते हुए, निवास के लिये आवश्यक सब तत्त्वों को हमारे लिये प्राप्त कराते हुए (धारया) = अपनी धारणशक्ति के साथ पवस्व हमें प्राप्त हो । सोम के रक्षण से सब वसुओं की हमें प्राप्ति हो । [२] इन वसुओं को प्राप्त कराके (द्वेषांसि) = सब द्वेष की वृत्तियों को (सध्यक्) = साथ-साथ ही, अर्थात् इकट्ठे ही (इनु) = हमारे से सुदूर प्रेरित कर । सोम के रक्षण से हम सबल बनें और द्वेष की भावनाओं से ऊपर उठें।
भावार्थ
भावार्थ- सोमरक्षण से सब वसुओं की प्राप्ति होती है और सब द्वेष दूर हो जाते हैं ।
विषय
आत्मा को लोकजय का उपदेश।
भावार्थ
तू (विश्वा) सब प्रकार के (वसूनि) बसने योग्य ऐश्वर्यों और लोकों को (सं-जयन्) अच्छी प्रकार विजय करता हुआ, हे (सोम) ऐश्वर्यवन् ! तू (धारया) उस अपनी धारणा शक्ति से (पवस्व) प्राप्त कर और (सद्धयक) साथ ही (द्वेषांसि इनु) सब प्रकार के द्वेषों को दूर कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
नृमेध ऋषिः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्दः- १ विराड् गायत्री। २–४, ६ निचृद् गायत्री। ५ गायत्री॥ षडृर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Flow forth profusely, O Soma, lord of peace and glory, by stream and shower, bringing and bestowing abundant wealth, honour and excellence of the world on us, and throw out all jealousy, enmity and malignity far away from us.
मराठी (1)
भावार्थ
जो पुरुष आपला अभ्युदय इच्छितो त्याने राग-द्वेषाच्या समुद्र लहरीत कधीही पडता कामा नये. कारण जे लोक राग-द्वेषाच्या प्रवाहात वाहून जातात ते आत्मिक, सामाजिक व शारीरिक तिन्ही प्रकारची उन्नती करू शकत नाहीत. त्यासाठी सर्व पुरुषांनी रागद्वेषांपासून संपूर्णपणे दूर राहावे. ॥४॥
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