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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 32 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 32/ मन्त्र 2
    ऋषिः - श्यावाश्वः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    आदीं॑ त्रि॒तस्य॒ योष॑णो॒ हरिं॑ हिन्व॒न्त्यद्रि॑भिः । इन्दु॒मिन्द्रा॑य पी॒तये॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आत् । ई॒म् । त्रि॒तस्य॑ । योष॑णः । हरि॑म् । हि॒न्व॒न्ति॒ । अद्रि॑ऽभिः । इन्दु॑म् । इन्द्रा॑य । पी॒तये॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आदीं त्रितस्य योषणो हरिं हिन्वन्त्यद्रिभिः । इन्दुमिन्द्राय पीतये ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आत् । ईम् । त्रितस्य । योषणः । हरिम् । हिन्वन्ति । अद्रिऽभिः । इन्दुम् । इन्द्राय । पीतये ॥ ९.३२.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 32; मन्त्र » 2
    अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 22; मन्त्र » 2
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (त्रितस्य) जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तिषु अवस्थास्वप्रतिहततेजसो भक्तस्य (योषणः) शक्तयः (इन्द्राय पीतये) जीवात्मनः तृप्तये (आत् ईम्) पूर्वोक्तं (इन्दुम्) परमेश्वरं (हरिम्) सर्वदुःखापहारकं परमात्मानम् (अद्रिभिः) इन्द्रियवृत्तिभिः (हिन्वन्ति) प्रेरयन्ति ॥२॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (त्रितस्य) जाग्रत् स्वप्न सुषुप्ति इन तीनों अवस्थाओं में अप्रतिहत प्रभाववाले भक्त पुरुष की (योषणः) शक्तियें (इन्द्राय पीतये) जीवात्मा की तृप्ति के लिये (आत् ईम्) उस पूर्वोक्त (इन्दुम्) परमैश्वर्यवाले (हरिम्) सब दुःखों के हरनेवाले परमात्मा को (अद्रिभिः) इन्द्रियवृत्तियों द्वारा (हिन्वन्ति) प्रेरित करती हैं ॥२॥

    भावार्थ

    जो लोग परमात्मा की भक्ति में रत हैं, उनकी इन्द्रियवृत्तियें परमात्मज्ञान की उपलब्धि के लिये सदैव तत्पर रहती हैं ॥२॥

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    विषय

    इन्द्राय पीतये

    पदार्थ

    [१] (आत्) = अब (ईम्) = निश्चय से (त्रितस्य) = 'काम-क्रोध-लोभ' को जीतनेवाले [त्रीन् तरति ] अथवा 'शरीर, मन व बुद्धि' तीनों का विकास करनेवाले [त्रीन् तनोति] उपासक की (योषण:) = वाणियाँ ['योषा हि वाक्' श० १।४।४।४] (अद्रिभिः) = उपासनाओं के द्वारा [आदृ adore ] (इन्दुम्) = शक्ति को देनेवाले (हरिम्) = सब रोगों का हरण करनेवाले सोम को (हिन्वन्ति) = शरीर में ही प्रेरित करती है । 'ज्ञान की वाणियों द्वारा प्रभु का उपासन' हमें सोमरक्षण के योग्य बनाता है। उपासना से वृत्ति वासनामय नहीं होती। यह शुद्ध वृत्ति ही सोम का रक्षण कराती है। [२] यह सुरक्षित सोम (इन्द्राय) = उस प्रभु की प्राप्ति के लिये होता है तथा (पीतये) = रक्षा के लिये होता है । इहलोक के दृष्टिकोण से यह हमें नीरोग बनाता है तथा परलोक के दृष्टिकोण से यह हमें प्रभु प्राप्ति के मार्ग पर चलाता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - ज्ञान की वाणियों द्वारा प्रभु का उपासन हमें सोम के रक्षण के योग्य बनाता है। रक्षित सोम हमें प्रभु की ओर ले चलता है और हमारा रक्षण करनेवाला होता है ।

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    विषय

    वीरों और विद्वान् स्नातकों के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    (आत्) और (ईम् हरिम्) इस मनोहर, ज्ञानोपार्जक विद्यार्थी, (इन्दुम्) स्नेहार्द्र एवं परिचर्या शील शश्रूषु को (त्रितस्य) विद्या- समुद्र के पारंगत विद्वान् पुरुष की (योषणः) प्रेमपूर्वक कही सेवनीय, वाणियां (अद्रिभिः) मेघवत् उदार, सूर्यवत् ज्ञान-प्रकाशक और अन्न के तुल्य नियम से सेवन करने योग्य वचनों से (इन्द्राय पीतये) आचार्य के ज्ञान-रस पान के लिये (हिन्वन्ति) बढ़ाती हैं।

    टिप्पणी

    ‘अद्रिः’—अद्रिरादृणात्यनेनापि वा अत्तेः स्यात्ते सोमाद इति विज्ञायते। निरु० ४। ४ ॥ अदेर्वा औणादिकः क्रिन्। ४। ६५ ॥ यो अत्ति अदन्ति यत्रेति वा स अद्रिः। पर्वतो, मेघो, वृक्षः, सूर्यो वा। अद्यते इत्यद्विः वनस्पत्यन्नादि।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    श्यावाश्व ऋषिः। पवमानः सोमो देवता॥ छन्दः-१, २ निचृद् गायत्री। ३-६ गायत्री॥ षडृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    And the vibrant thoughts and words of the sage beyond three fold bondage of body, mind and soul, with all perceptions of sense and conceptions of mind concentrated, rise, reach and exalt the lord of peace and joy, destroyer of suffering, for the enlightenment and ecstasy of the human soul.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे लोक परमेश्वराच्या भक्तीत रत असतात त्यांच्या इंद्रियवृत्ती परमेश्वरी ज्ञानाच्या उपलब्धीसाठी सदैव तत्पर असतात. ॥२॥

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