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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 32 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 32/ मन्त्र 3
    ऋषिः - श्यावाश्वः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    आदीं॑ हं॒सो यथा॑ ग॒णं विश्व॑स्यावीवशन्म॒तिम् । अत्यो॒ न गोभि॑रज्यते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आत् । ई॒म् । हं॒सः । यथा॑ । ग॒णम् । विश्व॑स्य । अ॒वी॒व॒श॒त् । म॒तिम् । अत्यः॑ । न । गोभिः॑ । अ॒ज्य॒ते॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आदीं हंसो यथा गणं विश्वस्यावीवशन्मतिम् । अत्यो न गोभिरज्यते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आत् । ईम् । हंसः । यथा । गणम् । विश्वस्य । अवीवशत् । मतिम् । अत्यः । न । गोभिः । अज्यते ॥ ९.३२.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 32; मन्त्र » 3
    अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 22; मन्त्र » 3
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (विश्वस्य मतिम् अवीवशत्) यः सर्वस्य बुद्धिं वशमानयति तं (अत्यः न) विद्युतमिव दुर्ग्रहम् (आदीम्) इमं परमात्मानं   (हंसः यथा गणम्) हंसः स्वसजातीयगणं यथा गच्छति तथा (गोभिः अज्यते) जीवः इन्द्रियैः सङ्गच्छते ॥३॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (विश्वस्य मतिम् अवीवशत्) सब की मति को वश में रखनेवाला (अत्यः न) विद्युत् की नाईं दुर्ग्राह्य (आदीम्) ऐसे परमात्मा को (हंसः यथा गणम्) जिस प्रकार हंस अपने सजातीय गण में जाकर मिलता है, उसी प्रकार (गोभिः अज्यते) जीव इन्द्रियों द्वारा साक्षात्कार करता है ॥३॥

    भावार्थ

    जीवात्मा जब तक अपनी सजातीय वस्तु के साथ सम्बन्ध नहीं लगाता, तब तक उसे आनन्द कदापि प्राप्त नहीं हो सकता, इस भाव का इस मन्त्र में उपदेश किया है कि जिस प्रकार हंस अपने सजातीय गण में मिलकर आनन्दित होता है, इस प्रकार जीवात्मा भी उस चिद्घन ब्रह्म में मिल जाता है। जीवात्मा को हंस की उपमा इस वास्ते दी है कि “हन्त्यविद्यामिति हंसः” यह जीव अविद्या का हनन करता है। यहाँ विज्ञानी जीव का वर्णन है और ब्रह्मप्राप्ति से जीव अविद्या का हनन करता है, जैसे कि ‘सता सोम्य तदा सम्पन्नो भवति’ छा० ॥३॥

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    विषय

    गणं-मतिम्

    पदार्थ

    [१] (अत्) = अब (ईम्) = निश्चय से (हंसः) = हमारे सब रोगों का हनन करनेवाला [हन्ति इति हंसः ] गत मन्त्र का हरि [हरति ] यह सोम (विश्वस्य) = सोम को शरीर में ही प्रविष्ट करनेवाले पुरुष के (यथा) = जैसे (गणम्) = इन्द्रिय गणों को उसी प्रकार (मतिम्) = बुद्धि को (अवीवशत्) = निरन्तर चाहता है। शरीर में व्याप्त होने पर यह सोम कर्मेन्द्रियों को व ज्ञानेन्द्रियों को तथा बुद्धि को उत्तम बनाता है । [२] (अत्यः न) = यह सोम निरन्तर गतिवाले घोड़े के समान होता है। यह हमें खूब ही क्रियाशील बनाता है । (गोभिः) = यह ज्ञान की वाणियों से (अज्यते) = शरीर में अलंकृत किया जाता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - हम ज्ञान प्राप्ति में लगे रहें, तो सोम शरीर में सुरक्षित रहता है।

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    विषय

    हंसवत् विवेकी कर्त्तव्य। हंस परमेश्वर।

    भावार्थ

    (आत्) और वह (यथा हंसः) जैसे हंस के समान विवेकी जन (गणं) जन समूह को और (विश्वस्य मतिम्) सब के ज्ञान वृद्धि को (अवीवशत्) अपने वश करता और चाहता है। वह (अत्यः न) अश्व के समान (गोभिः) वाणियों वत् जलधाराओं से (अज्यते) स्नात, अलंकृत और प्रकाशित होता है। (२) वह परमेश्वर सर्वव्यापक होने से ‘हंस’ है, वह विश्व की मति को अपने वश करता और वाणियों से प्रकट किया जाता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    श्यावाश्व ऋषिः। पवमानः सोमो देवता॥ छन्दः-१, २ निचृद् गायत्री। ३-६ गायत्री॥ षडृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    And just as a hansa bird joins its flock and just as a horse is controlled by reins to reach the destination, so does the soul, having controlled and concentrated all senses, mind and intelligence, rise and join the presence of Divinity, its ultimate haven and home.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जीवात्मा जोपर्यंत आपल्या सजातीय वस्तूबरोबर संबंध ठेवत नाहीत तोपर्यंत त्याला कधीही आनंद प्राप्त होत नाही. हा भाव या मंत्रात सांगितलेला आहे. ज्या प्रकारे हंस आपल्या सजातीय गणाबरोबर आनंदित राहतो त्या प्रकारे जीवात्मा ही त्या चिदघन ब्रह्मात राहतो. जीवात्म्याला हंसाची उपमा यासाठी दिलेली आहे. ‘‘हन्त्यविद्यामिति हंस:’’ हा जीव अविद्येचे हनन करतो. येथे विद्वान जीवाचे वर्णन आहे. ब्रह्मप्राप्तीने जीव अविद्येचे हनन करतो. जसे ‘सोम्य तदा सम्पन्नो भवति’ छा. ॥३॥

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