ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 32/ मन्त्र 4
उ॒भे सो॑माव॒चाक॑शन्मृ॒गो न त॒क्तो अ॑र्षसि । सीद॑न्नृ॒तस्य॒ योनि॒मा ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒भे इति॑ । सो॒म॒ । अ॒व॒ऽचाक॑शत् । मृ॒गः । न । त॒क्तः । अ॒र्ष॒सि॒ । सीद॑न् । ऋ॒तस्य॑ । योनि॑म् । आ ॥
स्वर रहित मन्त्र
उभे सोमावचाकशन्मृगो न तक्तो अर्षसि । सीदन्नृतस्य योनिमा ॥
स्वर रहित पद पाठउभे इति । सोम । अवऽचाकशत् । मृगः । न । तक्तः । अर्षसि । सीदन् । ऋतस्य । योनिम् । आ ॥ ९.३२.४
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 32; मन्त्र » 4
अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 22; मन्त्र » 4
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अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 22; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(सोम) हे परमात्मन् ! भवान् (उभे अवचाकशत्) द्युलोकपृथिवीलोकौ पश्यति (मृगः न तक्तः) सिंह इव प्रकृतिरूपे वने विराजते (ऋतस्य योनिम् आसीदन्) कार्यमात्रकारणीभूतायां प्रकृतौ स्थितः (अर्षसि) सर्वं व्याप्नोति ॥४॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(सोम) हे परमात्मन् ! (उभे अवचाकशत्) आप द्युलोक और पृथिवीलोक के साक्षी हैं (मृगः न तक्तः) और सिंह के समान प्रकृतिरूप वन में विराजमान हो रहे हैं (ऋतस्य योनिम् आसीदन्) अखिलकार्य का कारण जो प्रकृति, उसमें स्थित हो कर (अर्षसि) सर्वत्र व्याप्त हो रहे हैं ॥४॥
भावार्थ
परमात्मा इस प्रकृति के कार्य चराचर ब्रह्माण्ड में ओत-प्रोत हो रहा है अर्थात् प्रकृति एक प्रकार से गहन वन है और परमात्मा सिंह के समान इस वन का स्वामी है। इस मन्त्र में परमात्मा की व्यापकता और शोर्य-क्रौर्यादि गुणों के भाव से परमात्मा की रौद्ररूपता वर्णन की है।
विषय
शरीर व मस्तिष्क का ध्यान करना
पदार्थ
[१] हे (सोम) = वीर्यशक्ते ! (उभे) = दोनों द्यावापृथिवी को, मस्तिष्क व शरीर को (अवचाकशत्) = देखता हुआ दोनों का ध्यान करता हुआ तू (अर्षसि) = शरीर में गतिवाला होता है। शरीर में सुरक्षित हुआ हुआ तू (मृगः न) = जैसे आत्मान्वेषण की वृत्तिवाला होता है, उसी प्रकार (तक्तः) = [To rush upon] रोगों पर धावा बोलनेवाला होता है, रोगों पर आक्रमण करके उन्हें दूर करनेवाला होता है । [२] हे सोम ! तू (ऋतस्य योनिम्) = ऋत के उत्पत्ति स्थान प्रभु में (सीदन्) = स्थित होता हुआ (आ) = हमें प्राप्त हो । अर्थात् तू हमें प्रभु प्राप्ति के मार्ग पर, ऋत के मार्ग पर चलाता हुआ प्रभु को प्राप्त करानेवाला बन । प्रभु ऋत के उत्पत्ति-स्थान हैं। यह सोमरक्षक ऋत को अपनाता हुआ सब कार्यों को ठीक समय व ठीक स्थान पर करता हुआ प्रभु को प्राप्त होता है ।
भावार्थ
भावार्थ- सुरक्षित सोम मस्तिष्क व शरीर को स्वस्थ बनाता है। यह रोगों पर आक्रमण करता है, अन्ततः हमें प्रभु को प्राप्त कराता है ।
विषय
सिंहवत् ज्ञानेच्छुक का कर्त्तव्य । सिंहवत् धर्माध्यक्ष का कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे (सोम) विद्वन् ! ज्ञानेच्छुक ! तू (ऋतस्य योनिम् आ सीदन्) ज्ञान के आश्रय आचार्य को प्राप्त होता हुआ, (मृगः न तक्तः) सिंह के समान तेजस्वी वा शुद्ध चरित्र होकर (उभे अव चाकशत्) धर्म, अधर्म, इह और पर, लोकों को देखता हुआ (अर्षसि) आगे बढ़। (२) इसी प्रकार शासक धर्माध्यक्ष के पद पर विराज कर, सिंहवत् अभय होकर, सत्यानृत का विवेक करता हुआ न्याय करे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
श्यावाश्व ऋषिः। पवमानः सोमो देवता॥ छन्दः-१, २ निचृद् गायत्री। ३-६ गायत्री॥ षडृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O Soma, lord of peace and joy over-watching both heaven and earth, as a lion moves and rambles freely at will in the forest, so do you pervade and vibrate in the world of Prakrti well seated at the centre in the vedi of yajna, at the seat of human psyche and in the dynamic laws of existence.
मराठी (1)
भावार्थ
या प्रकृतीच्या विकृतीरूप कार्यात चराचर ब्रह्मांडात परमात्मा ओतप्रोत होत आहे. अर्थात प्रकृती एक प्रकारे गहन वन आहे व परमात्मा सिंहाप्रमाणे या वनाचा स्वामी आहे. या मंत्रात परमात्म्याची व्यापकता व शौर्य इत्यादी गुणांचे भाव वर्णित केलेले असून रौद्ररूपाचेही वर्णन केलेले आहे.॥४॥
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