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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 43 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 43/ मन्त्र 5
    ऋषिः - मेध्यातिथिः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    इन्दु॒रत्यो॒ न वा॑ज॒सृत्कनि॑क्रन्ति प॒वित्र॒ आ । यदक्षा॒रति॑ देव॒युः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्दुः॑ । अत्यः॑ । न । वा॒ज॒ऽसृत् । कनि॑क्रन्ति । प॒वित्रे॑ । आ । यत् । अक्षाः॑ । अति॑ । दे॒व॒ऽयुः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्दुरत्यो न वाजसृत्कनिक्रन्ति पवित्र आ । यदक्षारति देवयुः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्दुः । अत्यः । न । वाजऽसृत् । कनिक्रन्ति । पवित्रे । आ । यत् । अक्षाः । अति । देवऽयुः ॥ ९.४३.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 43; मन्त्र » 5
    अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 33; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (इन्दुः) स प्रकाशमानः परमात्मा (अत्यः न वाजसृत्) विद्युदिव स्वशक्तिभिर्व्याप्नुवन् (कनिक्रन्ति) शब्दायते (यत्) यः परमात्मा (देवयुः) दिव्यगुणयुक्तान् विदुषः अत्यर्थं स्पृहयन् (पवित्रे आ) तदीयपवित्रहृदयेषु सुष्ठु (अति अक्षाः) ब्रह्मानन्दं वर्षति ॥५॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (इन्दुः) वह प्रकाशमान परमात्मा (अत्यः न वाजसृत्) विद्युत् के सदृश अपनी शक्तियों से व्याप्त होता हुआ (कनिक्रन्ति) शब्दायमान हो रहा है (यत्) जो परमात्मा (देवयुः) दिव्यगुणसम्पन्न विद्वानों को चाहता हुआ (पवित्रे आ) उनके पवित्र हृदयों में भली प्रकार (अति अक्षाः) ब्रह्मानन्द का अत्यन्त क्षरण करता है ॥५॥

    भावार्थ

    दैवी सम्पत्तिवाले पुरुषों के हृदय में परमात्मा की ज्योति सदैव देदीप्यमान रहती है। मलिनान्तःकरण आसुरी सम्पत्तिवालों के हृदय उस दैवी दिव्यज्योति से सर्वथा वञ्चित रहते हैं ॥५॥

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    विषय

    वाजसृत्

    पदार्थ

    [१] (इन्दुः) = यह हमें शक्तिशाली बनानेवाला सोम (अत्यः न) = सततगामी अश्व के समान है । यह हमें शक्ति - सम्पन्न करके खूब क्रियाशील बनाता है। यह सोम (वाजसृत्) = संग्राम में गतिवाला होता है। यह संग्राम अध्यात्म संग्राम है। इस संग्राम में यह सोम काम-क्रोध-लोभ आदि शत्रुओं का पराभव करता है । (पवित्रे) = पवित्र हृदयवाले पुरुष में (आकनिक्रन्ति) = यह खूब ही प्रभु-स्तवन करता है । सोमरक्षण से अशुभ वृत्तियों का विनाश होता है, और प्रभु स्मरण की भावना जागती है । [२] (यद्) = जब (अति अक्षाः) = यह सोम अतिशयेन शरीर में व्याप्त होता है, तो (देवयुः) = हमारे साथ दिव्य गुणों को जोड़नेवाला होता है। हमारे में दिव्य गुणों का वर्धन करता हुआ यह सोम I हमें उस 'देव' प्रभु से मिलानेवाला होता है। इस सोम के वीर्य के रक्षण से ही तो उस सोम की [प्रभु की] प्राप्ति होती है।

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    विषय

    उससे सुखों और बलों की याचना।

    भावार्थ

    (वाजसृत् अत्यः) संग्राम में जाने वाले अश्व के समान तू (देवयुः) विद्वानों को चाहने वाला, (यत्) जब तू (पवित्रे) पवित्र पद पर (इन्दुः) अति आह्लादजनक होकर (कनिक्रन्ति) शासन करता है तब (अति अक्षाः) सब से बढ़ जाता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मेध्यातिथिर्ऋषिः॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्दः- १, २, ४, ५ गायत्री । ३, ६ निचृद् गायत्री॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O Soma, Spirit of light, beauty and grace of life’s vitality, moving fast like showers of energy in life’s evolution in the service of divine purpose, come into the pure heart of the dedicated sage and flow free loud and bold with the message of the divine presence.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    दैवी संपत्ती असणाऱ्या पुरुषांच्या हृदयात परमेश्वराची ज्योती सदैव देदीप्यमान असते. मलिन अंत:करण आसुरी संपत्ती असणाऱ्यांचे हृदय त्या दिव्य ज्योतीने सर्वस्वी वंचित असते. ॥५॥

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