ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 48/ मन्त्र 4
विश्व॑स्मा॒ इत्स्व॑र्दृ॒शे साधा॑रणं रज॒स्तुर॑म् । गो॒पामृ॒तस्य॒ विर्भ॑रत् ॥
स्वर सहित पद पाठविश्व॑स्मै । इत् । स्वः॑ । दृ॒शे । साधा॑रणम् । र॒जः॒ऽतुर॑म् । गो॒पाम् । ऋ॒तस्य॑ । विः । भ॒र॒त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
विश्वस्मा इत्स्वर्दृशे साधारणं रजस्तुरम् । गोपामृतस्य विर्भरत् ॥
स्वर रहित पद पाठविश्वस्मै । इत् । स्वः । दृशे । साधारणम् । रजःऽतुरम् । गोपाम् । ऋतस्य । विः । भरत् ॥ ९.४८.४
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 48; मन्त्र » 4
अष्टक » 7; अध्याय » 1; वर्ग » 5; मन्त्र » 4
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अष्टक » 7; अध्याय » 1; वर्ग » 5; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(विश्वस्मै इत् स्वर्दृशे) हे जगदीश्वर ! भवान् दिव्यगुणसमपन्नाय सर्वस्मै विदुषे (साधारणम्) समानोऽस्ति। अथ च (रजस्तुरम्) प्रधानतया रजोगुणप्रेरकोऽस्ति। (ऋतस्य गोपाम्) तथा यज्ञरक्षकश्चास्ति। अथ च (विः) सर्वत्र व्यापकतया (भरत्) जगतः पालनं करोति ॥४॥
हिन्दी (1)
पदार्थ
(विश्वस्मै इत् स्वर्दृशे) हे परमात्मन् ! आप सब ही दिव्यगुणसम्पन्न विद्वानों के लिये (साधारणम्) समान हैं और (रजस्तुरम्) प्रधानतया रजोगुण के प्रेरक हैं (ऋतस्य गोपाम्) तथा यज्ञ के रक्षिता हैं और (विः) सर्वव्यापक होकर (भरत्) संसार का पालन करते हैं ॥४॥
भावार्थ
जिस प्रकार प्रकृति के तीनों गुणों में से रजोगुण की प्रधानता है अर्थात् रजोगुण सत्त्वगुण और तमोगुण को धारण किये हुए रहता है, इसी प्रकार से परमात्मा के सत्, चित् और आनन्द इन तीनों गुणों में से चित् की प्रधानता है। अर्थात् चित् ही सत् और आनन्द का भी प्रकाशक है। इसी प्रकार परमात्मा के तेजोमय गुण को प्रधान समझकर उसके उपलब्ध करने की चेष्टा करनी चाहिए ॥४॥
English (1)
Meaning
The sage and scholar of lofty vision and imagination, in order that all visionaries of the world may perceive your heavenly majesty, communicates his experience of your presence who are present everywhere, who give motion to the energy of nature in the cosmic dynamics and who rule and protect the laws of eternal truth which govern the course of existence.
मराठी (1)
भावार्थ
ज्या प्रकारे प्रकृतीच्या तीन गुणांपैकी रजोगुण प्रमुख आहे. अर्थात रजोगुण, सत्त्वगुण व तमोगुणाला धारण करून असतो. त्याच प्रकारे परमात्म्याच्या सत्, चित्, आनंद या तीन गुणांमधून चित् प्रमुख असते. अर्थात चित् च सत् व आनंदचा प्रकाशक आहे. याच प्रकारे परमात्म्याच्या तेजोमय गुणाला मुख्य समजून त्याला उपलब्ध करण्याचा प्रयत्न केला पाहिजे. ॥४॥
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