ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 50/ मन्त्र 5
स प॑वस्व मदिन्तम॒ गोभि॑रञ्जा॒नो अ॒क्तुभि॑: । इन्द॒विन्द्रा॑य पी॒तये॑ ॥
स्वर सहित पद पाठसः । प॒व॒स्व॒ । म॒दि॒न्ऽत॒म॒ । गोभिः॑ । अ॒ञ्जा॒नः । अ॒क्तुऽभिः॑ । इन्दो॒ इति॑ । इन्द्रा॑य । पी॒तये॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
स पवस्व मदिन्तम गोभिरञ्जानो अक्तुभि: । इन्दविन्द्राय पीतये ॥
स्वर रहित पद पाठसः । पवस्व । मदिन्ऽतम । गोभिः । अञ्जानः । अक्तुऽभिः । इन्दो इति । इन्द्राय । पीतये ॥ ९.५०.५
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 50; मन्त्र » 5
अष्टक » 7; अध्याय » 1; वर्ग » 7; मन्त्र » 5
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अष्टक » 7; अध्याय » 1; वर्ग » 7; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(इन्दो) हे जगदीश्वर ! (मदिन्तम) उत्कृष्टानन्दजनक ! (अक्तुभिः गोभिः अञ्जानः) साधनभूतेन्द्रियैर्ध्यानविषयीभूतः (सः) सकलभुवनप्रसिद्धस्त्वं (इन्द्राय पीतये) जीवात्मनः परमतृप्तये (पवस्व) ब्रह्मानन्दक्षरणं कुरु ॥५॥ इति पञ्चाशत्तमं सूक्तं सप्तमो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(इन्दो) हे परमात्मन् ! (मदिन्तम) सर्वोपरि आनन्द के जनयिता ! (अक्तुभिः गोभिः अञ्जानः) साधनभूत इन्द्रियों द्वारा ध्यानविषय किये गये (सः) सकलभुवनप्रसिद्ध वह आप (इन्द्राय पीतये) जीवात्मा की परम तृप्ति के लिये (पवस्व) ब्रह्मानन्द का क्षरण कीजिये ॥५॥
भावार्थ
जीव की सच्ची तृप्ति परमात्मानन्द से ही होती है, अन्यथा नहीं ॥५॥ यह ५० वाँ सूक्त और ७ वाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
प्रकाश - रश्मियों व प्रभु की प्राप्ति
पदार्थ
[१] हे (मदिन्तम) = अत्यन्त हर्ष को देनेवाले सोम! (सः) = वह तू (पवस्व) = हमें प्राप्त हो । (गोभि:) = ज्ञान की वाणियों से (अञ्जान:) = अलंकृत होता हुआ तू हमें पवित्र कर। (अक्तुभिः) = प्रकाश की रश्मियों के हेतु से तू हमें प्राप्त हो। जितना जितना हम ज्ञान की वाणियों का अध्ययन करेंगे उतना उतना हम सोम रक्षण के योग्य बनेंगे। रक्षित सोम हमारे जीवन में प्रकाश की रश्मियों को प्राप्त करायेगा। [२] हे (इन्दो) = हमें शक्तिशाली बनानेवाले सोम ! तू रक्षित होकर (इन्द्राय) = हमें प्रभु को प्राप्त कराने के लिये हो, प्रभु प्राप्ति का साधन बन । (पीतये) = तू हमारे रक्षण के लिये हो, हमें रोगों से बचानेवाला हो ।
भावार्थ
भावार्थ- स्वाध्याय के द्वारा हम सोम का रक्षण करते हैं। रक्षित सोम हमें प्रकाश की रश्मियों को प्राप्त कराके प्रभु को प्राप्त कराता है। उच्चथ्य ही कहते हैं-
विषय
उसका राष्ट्र-शोधन का कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे (इन्दो) ऐश्वर्यवन् ! तू (इन्द्राय पीतये) ऐश्वर्य के उपभोग के लिये, हे (मदिन्तम) हर्षयुक्त ! तू (अक्तुभिः) गुणों वा ज्ञान के प्रकाशक (गोभिः) वाणियों से (अञ्जानः) अभिप्राय को प्रकाशित करता हुआ वा रश्मियों से चमकता हुआ, (सः) वह तू (पवस्व) राष्ट्र को स्वच्छ पवित्र कर। इति सप्तमो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
उचथ्य ऋषिः। पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:- १, २, ४, ५ गायत्री। ३ निचृद् गायत्री॥ पञ्चर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Flow on, most exhilarating Spirit, adored and exalted by concentrative mind and senses of the seeker in meditation, flow on for ecstatic experience of the soul.
मराठी (1)
भावार्थ
जीवाची खरी तृप्ती परमानंदानेच होते अन्यथा नाही. ॥५॥
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