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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 62 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 62/ मन्त्र 19
    ऋषिः - जमदग्निः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    आ॒वि॒शन्क॒लशं॑ सु॒तो विश्वा॒ अर्ष॑न्न॒भि श्रिय॑: । शूरो॒ न गोषु॑ तिष्ठति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ॒ऽवि॒शन् । क॒लश॑म् । सु॒तः । विश्वा॑ । अर्ष॑न् । अ॒भि । श्रियः॑ । शूरः॑ । न । गोषु॑ । ति॒ष्ठ॒ति॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आविशन्कलशं सुतो विश्वा अर्षन्नभि श्रिय: । शूरो न गोषु तिष्ठति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आऽविशन् । कलशम् । सुतः । विश्वा । अर्षन् । अभि । श्रियः । शूरः । न । गोषु । तिष्ठति ॥ ९.६२.१९

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 62; मन्त्र » 19
    अष्टक » 7; अध्याय » 1; वर्ग » 27; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (सुतः) अभिषिक्तः सेनाधीशः (कलशम् आविशन्) शब्दायमानशस्त्रेषु प्रविशन् शस्त्रविद्यां शिक्षन् इत्यर्थः (विश्वाः श्रियः अभ्यर्षन्) समस्तां लक्ष्मीं प्रापयन् (गोषु) इन्द्रियेषु (शूरः न) वीर इव जितेन्द्रिय इवेति यावत् (तिष्ठति) स्थितो भवति ॥१९॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (सुतः) अभिषिक्त सेनापति (कलशम् आविशन्) शब्दायमान शस्त्रों में प्रवेश करता हुआ अर्थात् शस्त्रविद्या को सीखता हुआ (विश्वाः श्रियः अभ्यर्षन्) सम्पूर्ण लक्ष्मी को प्राप्त करता हुआ (गोषु) इन्द्रियों में (शूरः न) शूर के समान अर्थात् जितेन्द्रिय की तरह (तिष्ठति) स्थित होता है ॥१९॥

    भावार्थ

    जो पुरुष जितेन्द्रिय और दृढ़व्रती होते हैं, वे ही राजधर्म के लिये उपयुक्त होते हैं, अन्य नहीं ॥१९॥

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    विषय

    श्री-सम्पन्नता

    पदार्थ

    [१] (सुतः) = उत्पन्न हुआ हुआ सोम (कलशम्) = इस शरीर रूप पात्र में (आविशन्) = प्रवेश करता हुआ (विश्वा:) = सब (श्रियः) = धनों की (अभि अर्षन्) = ओर ले जानेवाला होता है [अभिगमयन् सा० ] । शरीर में सुरक्षित हुआ हुआ सोम अन्नमय आदि सब कोशों को उस-उस ऐश्वर्य से परिपूर्ण करता है । [२] इन सब ऐश्वर्यों से युक्त यह शूरः न शूरवीर के समान (गोषु तिष्ठति) = सब इन्द्रियों पर अधिष्ठातृरूपेण स्थित होता है [गावः इन्द्रियाणि] । सोम का रक्षण करनेवाला पुरुष जितेन्द्रिय तो होता ही है। इन इन्द्रियों को वश में करना ही सब से बड़ी शूरता है।

    भावार्थ

    भावार्थ - शरीर में सुरक्षित सोम इसे श्री सम्पन्न बनाता है। यह सोमरक्षक पुरुष शूरवीर व इन्द्रियों का अधिष्ठाता बनता है ।

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    विषय

    अभिषेक घट के तुल्य राष्ट्र में अभिषिक्त राजा की शोभा।

    भावार्थ

    (कलशं आ विशन्) कलश अर्थात् स्नान-जलों से पूर्ण घट के तुल्य प्रजाओं से पूर्ण राष्ट्र में (आ विशन्) प्रवेश करता हुआ (सुतः) अभिषिक्त राजा, (विश्वाः श्रियः अभि अर्षन्) समस्त राज्य-लक्ष्मियों को प्राप्त होता हुआ, (शूरः न) शूरवीर पुरुष के समान (गोषु) स्तुति वाणियों के बीच, वा भूमियों के ऊपर (तिष्ठति) विराजता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    जमदग्निर्ऋषिः॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:- १, ६, ७, ९, १०, २३, २५, २८, २९ निचृद् गायत्री। २, ५, ११—१९, २१—२४, २७, ३० गायत्री। ३ ककुम्मती गायत्री। पिपीलिकामध्या गायत्री । ८, २०, २६ विराड् गायत्री॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Taking over his positions of office, the leader, pioneer and ruler presides over lands and affairs of the order like a brave warrior moving forward and winning all wealth, honours, excellence and graces for the people, exhorted and exalted by them.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे पुरुष जितेन्द्रिय व दृढव्रती असतात तेच राजधर्मासाठी उपयुक्त असतात, इतर नाही. ॥१९॥

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