ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 62/ मन्त्र 28
प्र ते॑ दि॒वो न वृ॒ष्टयो॒ धारा॑ यन्त्यस॒श्चत॑: । अ॒भि शु॒क्रामु॑प॒स्तिर॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । ते॒ । दि॒वः । न । वृ॒ष्टयः॑ । धाराः॑ । य॒न्ति॒ । अ॒स॒श्चतः॑ । अ॒भि । शु॒क्राम् । उ॒प॒ऽस्तिर॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र ते दिवो न वृष्टयो धारा यन्त्यसश्चत: । अभि शुक्रामुपस्तिरम् ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । ते । दिवः । न । वृष्टयः । धाराः । यन्ति । असश्चतः । अभि । शुक्राम् । उपऽस्तिरम् ॥ ९.६२.२८
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 62; मन्त्र » 28
अष्टक » 7; अध्याय » 1; वर्ग » 29; मन्त्र » 3
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अष्टक » 7; अध्याय » 1; वर्ग » 29; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
हे चमूपते ! (दिवः वृष्टयः न) यथा नभस्तोऽनेकजलधारापातस्तथा (ते) भवतः (धाराः) रक्षाकर्त्र्यः सेनाः (असश्चतः) पृथक् पृथक् (प्रयन्ति) इतस्ततो विचरन्ति तथा (शुक्राम् अभि) स्वपवनीयप्रजाः (उपस्तिरम्) बाढमनुगृह्णन्ति ॥२८॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे सेनापते ! (दिवः वृष्टयः न) जिस प्रकार आकाश से जल की अनेक धाराओं का पात होता है, उसी प्रकार (ते) आपकी (धाराः) रक्षक सेनायें (असश्चतः) पृथक्-पृथक् (प्रयन्ति) इधर-उधर विचरती हैं और (शुक्राम् अभि) अपनी रक्षणीय पवित्र प्रजा को (उपस्तिरम्) भली-भाँति अनुगृहीत करती हैं ॥२८॥
भावार्थ
जिस प्रकार सेनापति की सेनायें इतस्ततः विचरती हुई उसके महत्त्व को बतलाती हैं, उसी प्रकार अनन्त ब्रह्माण्ड परमात्मा के महत्त्व को सेनाओं की नाईं सुशोभित करते हैं ॥२८॥
विषय
'अभि शुक्रां उपस्तिरम्'
पदार्थ
[१] हे सोम ! (दिवः वृष्टयः) = नद्युलोक से होनेवाली वृष्टियों की तरह (ते) = तेरी (असश्चतः) = [unceasing, not drying up] न शुष्क हो जानेवाली (धाराः) = धारायें (प्रयन्ति) = हमें प्रकर्षेण प्राप्त होती हैं । जैसे द्युलोक से होनेवाली वृष्टि सब सन्ताप का हरण करनेवाली होती है, इसी प्रकार इस सोम की धारायें शरीर के सब सन्तापों को विनष्ट करती हैं । [२] ये धारायें (शुक्राम्) = अत्यन्त निर्मल (उपस्तिरम्) = आच्छादन का (अभि) = लक्ष्य करके हमें प्राप्त होती हैं । यह 'अत्यन्त निर्मल आच्छादन' प्रभु ही है। 'अमृतोपस्तरणमसि' । यह सोम हमें प्रभु को प्राप्त करानेवाला होता है।
भावार्थ
भावार्थ - निरन्तर शरीर में प्रवाहित होनेवाली सोम की धारायें सब सन्तापों का हरण करती हुई प्रभुरूप दीत आच्छादन को हमें प्राप्त कराती हैं।
विषय
प्रभुवत् राजा की विभूति का प्रदर्शन।
भावार्थ
(दिवः वृष्टयः न) आकाश से जल-वृष्टियें जिस प्रकार (शुक्राम् उप-स्तिरम्) जलमयी विस्तृत नदी को प्राप्त होती हैं उसी प्रकार (ते दिवः) तुझ तेजस्वी और (असश्चतः) असंग निःस्वार्थ पुरुष की (धाराः) वाणियां (शुक्राम्) तेजोयुक्त, बलशालिनी, (उप-स्तिरम्) समीप में विस्तृत वा विद्यमान बसी प्रजा वा खड़ी सेना को प्राप्त हों।
टिप्पणी
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
जमदग्निर्ऋषिः॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:- १, ६, ७, ९, १०, २३, २५, २८, २९ निचृद् गायत्री। २, ५, ११—१९, २१—२४, २७, ३० गायत्री। ३ ककुम्मती गायत्री। पिपीलिकामध्या गायत्री । ८, २०, २६ विराड् गायत्री॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Like showers of light from heaven, the streams of your grace shower upon the bright world of humanity below on the wide earth, incessantly.
मराठी (1)
भावार्थ
ज्या प्रकारे सेनापतीची सेना इकडे तिकडे विखरून त्यांचे महत्त्व दर्शविते. त्याचप्रकारे अनंत ब्रह्मांड परमेश्वराचे महत्त्व सेनेप्रमाणे सुशोभित करतात. ॥२८॥
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