ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 62/ मन्त्र 7
यास्ते॒ धारा॑ मधु॒श्चुतोऽसृ॑ग्रमिन्द ऊ॒तये॑ । ताभि॑: प॒वित्र॒मास॑दः ॥
स्वर सहित पद पाठयाः । ते॒ । धाराः॑ । म॒धु॒ऽश्चुतः॑ । असृ॑ग्रम् । इ॒न्दो॒ इति॑ । ऊ॒तये॑ । ताभिः॑ । प॒वित्र॑म् । आ । अ॒स॒दः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यास्ते धारा मधुश्चुतोऽसृग्रमिन्द ऊतये । ताभि: पवित्रमासदः ॥
स्वर रहित पद पाठयाः । ते । धाराः । मधुऽश्चुतः । असृग्रम् । इन्दो इति । ऊतये । ताभिः । पवित्रम् । आ । असदः ॥ ९.६२.७
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 62; मन्त्र » 7
अष्टक » 7; अध्याय » 1; वर्ग » 25; मन्त्र » 2
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अष्टक » 7; अध्याय » 1; वर्ग » 25; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(इन्दो) हे कर्मप्रधानसेनापते ! (याः) याः (मधुश्चुतः) मोदवृष्टिकारिण्यो त्वदीयाः (धाराः) बह्व्यः शाखाः (ऊतये) जनरक्षणाय (असृग्रम्) इतस्ततो व्याप्ताः सन्ति (ताभिः) ताभिः (पवित्रम्) सत्कर्म कुर्वाणम् (आसदः) अनुगृहाण ॥७॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(इन्दो) हे कर्मप्रधान सेनापति ! (याः) जो (मधुश्चुतः) आनन्द की वर्षा करनेवाली आपकी (धाराः) अनेक शाखाएँ (ऊतये) प्रजाओं के रक्षणार्थ (असृग्रम्) इधर-उधर फैली हुई हैं (ताभिः) उनसे (पवित्रम्) सत्कर्मी को (आसदः) अनुगृहीत करिये ॥७॥
भावार्थ
परमात्मा उपदेश करता है कि सेनाधीश अपनी सुरक्षारूप वृष्टि से प्रजाओं को आनन्द से सुसिञ्चित करे ॥७॥
विषय
मधुश्श्रुतः धाराः
पदार्थ
[१] हे (इन्दो) = सोम ! (याः) = जो (ते) = तेरी (धारा:) = धारणशक्तियाँ (मधुश्चतः) = शरीर में माधुर्य को क्षरित करनेवाली, (ऊतये) = रक्षण के लिये (असृग्रम्) = उत्पन्न की जाती हैं, (ताभिः) = उन धाराओं से (पवित्रम्) = पवित्र हृदयवाले पुरुष में तू (आसदः) = आसीन हो। [२] शरीर में सुरक्षित हुआ-हुआ सोम [क] जीवन में माधुर्य को उत्पन्न करता है। [ख] यह शरीर के रक्षण के लिये होता है, रोगकृमियों के विनाश के द्वारा शरीर को सुरक्षित करता है। यह सोम हृदय की पवित्रता के होने पर शरीर में सुरक्षित होता है।
भावार्थ
भावार्थ–पवित्र हृदयवाले पुरुष में सोम का रक्षण होता है। रक्षित हुआ हुआ यह सोम शरीर का रक्षण करता है। जीवन में माधुर्य को उत्पन्न करता है ।
विषय
उसका विद्वानों के प्रति कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे (इन्दो) ऐश्वर्यवन् ! (ऊतये) प्रजा की रक्षा के लिये (याः) जो (ते) तेरी वाणियां (मधुश्रुतः) मधुर, सुख देने वाली (असृग्रम्) होती हैं (ताभिः) उनसे तू (पवित्रम्) पवित्र पद पर (आ असदः) विराज।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
जमदग्निर्ऋषिः॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:- १, ६, ७, ९, १०, २३, २५, २८, २९ निचृद् गायत्री। २, ५, ११—१९, २१—२४, २७, ३० गायत्री। ३ ककुम्मती गायत्री। पिपीलिकामध्या गायत्री । ८, २०, २६ विराड् गायत्री॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O Soma, spirit of ambition, action and glory of life, the honey sweet streams of your ecstasy flow for the protection and sanctification of life. With those streams come and flow in the holy yajnic hall of action.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा उपदेश करतो की सेनाधीशाने आपल्या सुरक्षारूपी वृष्टीने प्रजेला आनंदाने सुसिञ्चित करावे. ॥७॥
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