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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 63 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 63/ मन्त्र 24
    ऋषिः - निध्रुविः काश्यपः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    अ॒प॒घ्नन्प॑वसे॒ मृध॑: क्रतु॒वित्सो॑म मत्स॒रः । नु॒दस्वादे॑वयुं॒ जन॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒प॒ऽघ्नन् । पा॒व॒से॒ । मृधः॑ । क्र॒तु॒ऽवित् । सो॒म॒ । म॒त्स॒रः । नु॒दस्व॑ । अदे॑वऽयुम् । जन॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अपघ्नन्पवसे मृध: क्रतुवित्सोम मत्सरः । नुदस्वादेवयुं जनम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अपऽघ्नन् । पावसे । मृधः । क्रतुऽवित् । सोम । मत्सरः । नुदस्व । अदेवऽयुम् । जनम् ॥ ९.६३.२४

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 63; मन्त्र » 24
    अष्टक » 7; अध्याय » 1; वर्ग » 34; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (सोम) हे जगदीश्वर ! भवान् (मत्सरः) परमानन्ददाता तथा (क्रतुवित्) सर्वशक्तिसम्पन्नोऽस्ति। यो भवान् (मृधः) दुष्टान् (अपघ्नन्) नाशयन् शिष्टान् (पवसे) गोपायति स त्वं (अदेवयुम्) दुराचारिणं (जनम्) रक्षःसमूहं (नुदस्व) नाशयतु ॥२४॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (सोम) हे परमेश्वर ! आप (मत्सरः) परम आनन्द देनेवाले तथा (क्रतुवित्) सर्वशक्तिसम्पन्न हैं। जो आप (मृधः) दुष्टों को (अपघ्नन्) हनन करते हुए (पवसे) रक्षा करते हैं, वह आप (अदेवयुम्) दुष्टाचारी (जनम्) राक्षससमूह को (नुदस्व) हनन करिये ॥२४॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में भी परमात्मा के रौद्ररूप का वर्णन किया गया है ॥२४॥

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    विषय

    'क्रतुवित्' सोम

    पदार्थ

    [१] हे (सोम) = वीर्यशक्ते ! तू (मृधः) = हमें कतल करने वाले 'काम-क्रोध-लोभ' आदि शत्रुओं को (अपघ्नन्) = सुदूर विनष्ट करता हुआ (पवसे) = हमें प्राप्त होता है। हे सोम ! तू इन शत्रुओं को नष्ट करके (क्रतुवित्) = हमें शक्ति व प्रज्ञान को प्राप्त करानेवाला है। (मत्सरः) = इस शक्ति व प्रज्ञान के द्वारा हमारे जीवन में आनन्द का संचार करनेवाला है। [२] हे सोम ! तू (अदेवयुं जनम्) = उस देव प्रभु को न चाहनेवाले पुरुष को नुदस्व हमारे से दूर प्रेरित कर अर्थात् हमारी अदेवयु पुरुषों के संग में उठने-बैठने की कामना न हो।

    भावार्थ

    भावार्थ- सुरक्षित सोम हमारे शत्रुओं का नाश करता है। हमें शक्ति व आनन्द को प्राप्त कराता है । हमारी रुचि सज्जन संग की होती है।

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    विषय

    उसको दुष्ट प्रवृत्तियों और नाशक बुरे व्यक्तियों को त्यागने और दूर करने का कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे (सोम) विद्वन् ! ऐश्वर्यवन्, सन्मार्ग में प्रेरक ! (मत्सरः) सब को हर्षित करने वाला (क्रतुवित्) सब को उत्तम ज्ञान देने वाला, एवं सत्कर्मों को जानने और ज्ञान कराने वाला होकर (मृधः अपघ्नन्) हिंसाकारिणी दुष्ट प्रवृत्तियों को नाश करता हुआ (पवसे) पवित्र करता है। तू (अदेवयुं जनं) देव, विद्वान्, प्रभु और सद् गुणों को न चाहने वाले जन को (नुदस्व) सन्मार्ग में प्रेरित कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    निध्रुविः काश्यप ऋषिः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:- १, २, ४, १२, १७, २०, २२, २३, २५, २७, २८, ३० निचृद् गायत्री। ३, ७-११, १६, १८, १९, २१, २४, २६ गायत्री। ५, १३, १५ विराड् गायत्री। ६, १४, २९ ककुम्मती गायत्री॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O Soma, lord of absolute peace, purity, power and holiness of action, omnipotent and blissful, you vibrate in existence destroying sin and evil. Pray impel the impious people to truth, piety and creative generosity, or punish and eliminate them like hurdles in the creative paths of piety and rectitude.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रातही परमात्म्याच्या रौद्ररूपाचे वर्णन केलेले आहे. ॥२४॥

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