ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 64/ मन्त्र 22
इन्द्रा॑येन्दो म॒रुत्व॑ते॒ पव॑स्व॒ मधु॑मत्तमः । ऋ॒तस्य॒ योनि॑मा॒सद॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्रा॑य । इ॒न्दो॒ इति॑ । म॒रुत्व॑ते । पव॑स्व । मधु॑मत्ऽतमः । ऋ॒तस्य॑ । योनि॑म् । आ॒ऽसद॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रायेन्दो मरुत्वते पवस्व मधुमत्तमः । ऋतस्य योनिमासदम् ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्राय । इन्दो इति । मरुत्वते । पवस्व । मधुमत्ऽतमः । ऋतस्य । योनिम् । आऽसदम् ॥ ९.६४.२२
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 64; मन्त्र » 22
अष्टक » 7; अध्याय » 1; वर्ग » 40; मन्त्र » 2
Acknowledgment
अष्टक » 7; अध्याय » 1; वर्ग » 40; मन्त्र » 2
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(इन्दो) हे परमैश्वर्यसम्पन्नपरमेश्वर ! (मरुत्वते इन्द्राय) ज्ञानयोगिने कर्मयोगिने च भवान् (पवस्व) स्वानन्दवृष्टिं करोतु। यतो भवान् (मधुमत्तमः) आनन्दमयोऽस्ति। अत एवोक्तविद्वज्जनेभ्य आनन्दप्रदानं करोतु। अथ च (ऋतस्य योनिमासदम्) यज्ञवेद्यामागत्य यज्ञं विभूषयतु ॥२२॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(इन्दो) हे प्रकाशस्वरूप परमात्मन् ! (मरुत्वते इन्द्राय) ज्ञानयोगी और कर्मयोगी के लिये (पवस्व) आप अपने आनन्द की वृष्टि करें। क्योंकि आप (मधुमत्तमः) आनन्दमय हैं, इसलिये उक्त विद्वानों को आप आनन्द का प्रदान करें और (ऋतस्य योनिमासदम्) यज्ञवेदी को आकर विभूषित करें ॥२२॥
भावार्थ
परमात्मा कर्मयोगी और ज्ञानयोगी के हृदयमण्डप को विभूषित करता है और उनके सत्यव्रतात्मक यज्ञ को सदैव सुशोभित करता है ॥२२॥
विषय
मरुत्वते इन्द्राय मधुमत्तमः
पदार्थ
[१] हे (इन्दो) = हमें शक्तिशाली बनानेवाले सोम ! तू (मरुत्वते) = प्रशस्त मरुतों [प्राणों] वाले, प्राणसाधना करनेवाले (इन्द्राय) = इस जितेन्द्रिय पुरुष के लिये पवस्व प्राप्त हो । (मधुमत्तमः) = तू इसके जीवन को अत्यन्त मधुर बनानेवाला है। [२] और अन्ततः ऋतस्य (योनिम्)= उस ऋत के उत्पत्ति- स्थान प्रभु को (आसदम्) = प्राप्त होने के लिये होता है । सोमरक्षण से ही हम दीप्त ज्ञानाग्निवाले सूक्ष्म बुद्धि बनकर प्रभु का दर्शन करते हैं।
भावार्थ
भावार्थ - प्राणायाम हमें ऊर्ध्व-रेता बनाता है। इसी से हम प्रभु-दर्शन कर पाते हैं। एवं प्राण साधक जितेन्द्रिय पुरुष के लिये यह सोम मधुमत्तम है ।
विषय
मरुत्वान् इन्द्र की प्राप्ति के लिये विद्वान् को आदेश।
भावार्थ
हे (इन्दो) उत्तम लक्ष्य की ओर जाने हारे ! तू (ऋतस्य योनिम्) सत्य, परम तेज के आश्रय को (आसदम्) प्राप्त करने के लिये स्वयं (मधुमत्-तमः) अति मधुर स्वभाव एवं उत्तम ज्ञानवान् होकर (मरुत्वते इन्द्राय) शिष्यों के स्वामी आचार्य और वायु आदि शक्तियों के स्वामी प्रभु और वीरों के स्वामी सेनापति को प्राप्त करने के लिये (पवस्व) आगे बढ़ा।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
काश्यप ऋषिः। पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:– १, ३, ४, ७, १२, १३, १५, १७, १९, २२, २४, २६ गायत्री। २, ५, ६, ८–११, १४, १६, २०, २३, २५, २९ निचृद् गायत्री। १८, २१, २७, २८ विराड् गायत्री। ३० यवमध्या गायत्री ॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O Soma, enlightened joy of spiritual purity and bliss, flow into the consciousness of the vibrant soul of the devotee as an offering to Indra, lord of universal power and joy who abides at the heart of universal truth and law of existence.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा कर्मयोगी व ज्ञानयोगी यांच्या हृदयमंडपाला विभूषित करतो व त्यांच्या सत्यव्रतात्मक यज्ञाला सदैव सुशोभित करतो. ॥२२॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal