ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 64/ मन्त्र 3
अश्वो॒ न च॑क्रदो॒ वृषा॒ सं गा इ॑न्दो॒ समर्व॑तः । वि नो॑ रा॒ये दुरो॑ वृधि ॥
स्वर सहित पद पाठअश्वः॑ । न । च॒क्र॒दः॒ । वृषा॑ । सम् । गाः । इ॒न्दो॒ इति॑ । सम् । अर्व॑तः । वि । नः॒ । रा॒ये । दुरः॑ । वृ॒धि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अश्वो न चक्रदो वृषा सं गा इन्दो समर्वतः । वि नो राये दुरो वृधि ॥
स्वर रहित पद पाठअश्वः । न । चक्रदः । वृषा । सम् । गाः । इन्दो इति । सम् । अर्वतः । वि । नः । राये । दुरः । वृधि ॥ ९.६४.३
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 64; मन्त्र » 3
अष्टक » 7; अध्याय » 1; वर्ग » 36; मन्त्र » 3
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अष्टक » 7; अध्याय » 1; वर्ग » 36; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
हे जगदीश्वर ! (वृषा) वर्षको भवान् (अश्वो न) विद्युदिव [सं चक्रदः] शब्दप्रदोऽस्ति। (इन्दो) हे परमैश्वर्यसम्पन्न ! भवान् (गाः) ज्ञानेन्द्रियाणां तथा (समर्वतः) कर्मेन्द्रियाणां (दुरः) द्वाराणि (राये) ऐश्वर्याय (नः) अस्मदर्थं (विवृधि) उत्पाटयतु ॥३॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे परमात्मन् ! आप (अश्वो न) विद्युत् के समान (सं चक्रदः) शब्दों के देनेवाले हैं और (इन्दो) हे परमेश्वर ! आप (गाः) ज्ञानेन्द्रियों के (समर्वतः) और कर्मेन्द्रियों के (दुरः) द्वारों को (राये) ऐश्वर्यार्थ (नः) हमारे लिये (विवृधि) खोल दें ॥३॥
भावार्थ
परमात्मा जिन पर कृपा करता है, उन पुरुषों की ज्ञानेन्द्रिय तथा कर्मेन्द्रिय की शक्तियों को बढ़ाता है। तात्पर्य यह है कि उद्योगी पुरुष वा यों कहो कि सत्कर्मी पुरुषों की शक्तियों को परमात्मा बढ़ाता है। आलसी और दुराचारियों की नहीं ॥३॥
विषय
ऐश्वर्य द्वारों का उद्घाटन
पदार्थ
[१] (वृषा) = हे सोम ! तू हमारे लिये सुखवर्षक है। (अश्वः न) = शक्तिशाली के समान तू (चक्रदः) = उस प्रभु को पुकारता है, हमें शक्तिशाली बनाता हुआ प्रभु के स्तवन की वृत्तिवाला बनाता है । [२] हे (इन्दो) = हमें शक्तिशाली बनानेवाले सोम ! तू (गाः) = ज्ञानेन्द्रियों को (सम्) = हमारे साथ संगत कर । (अर्वतः) = कर्मेन्द्रियों को (सम्) = हमारे साथ संगत कर । सोमरक्षण से हमारी ज्ञानेन्द्रियाँ व कर्मेन्द्रियाँ उत्तम हों। [३] हे सोम ! तू (नः) = हमारे (राये) = ऐश्वर्य के लिये (दुरः) = द्वारों को (विवृधि) = खोल डाल । तेरे द्वारा हमारे अन्नमय आदि सब कोश तेजस्विता आदि ऐश्वर्यों से परिपूर्ण बनें।
भावार्थ
भावार्थ- सोम हमारा ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों को बलवान् बनाता है।
विषय
रथ के अश्व के तुल्य उसका राष्ट्र-चक्र प्रवर्तन का कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे (इन्दो) ऐश्वर्यवन् ! (अश्वः न चक्रदः) अश्व जिस प्रकार चक्र को धारण करता और राष्ट्र चक्र की रक्षा करता है उसी प्रकार तू भी (चक्रदः) हमें उत्तम उपदेश कर। तू (वृषा) बलवान्, वीर्य धनैश्वर्य द्वारा सेचन में समर्थ होकर (गाः सं चक्रदः) गौओं को भूमियों और वाणियों का उपदेश प्रदान कर। (अर्वतः सं चक्रदः) अश्वों, शत्रुहिंसकों और विद्वानों पर भली प्रकार शासन कर। (नः राये दुरः वि वृधि) हमारे लिये धन प्राप्ति के द्वार खोल।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
काश्यप ऋषिः। पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:– १, ३, ४, ७, १२, १३, १५, १७, १९, २२, २४, २६ गायत्री। २, ५, ६, ८–११, १४, १६, २०, २३, २५, २९ निचृद् गायत्री। १८, २१, २७, २८ विराड् गायत्री। ३० यवमध्या गायत्री ॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Like the roar of thunder you are loud and bold in manifestation in existence. O dynamic presence of infinite light and generous flow of energy, you pervade and energise our perceptions and our will for action and advancement. Pray open and widen the doors of wealth, honour and excellence for us all.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा ज्याच्यावर कृपा करतो त्या पुरुषांच्या ज्ञानेंद्रिय व कर्मेन्द्रियांच्या शक्तीला वाढवितो. उद्योगी पुरुष किंवा सत्कर्मी पुरुषांची शक्ती परमात्मा वाढवितो. आळशी व दुराचारींची नाही. ॥३॥
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