ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 66/ मन्त्र 20
अ॒ग्निॠषि॒: पव॑मान॒: पाञ्च॑जन्यः पु॒रोहि॑तः । तमी॑महे महाग॒यम् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ग्निः । ऋषिः॑ । पव॑मानः । पाञ्च॑ऽजन्यः । पु॒रःऽहि॑तः । तम् । ई॒म॒हे॒ । म॒हा॒ऽग॒यम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्निॠषि: पवमान: पाञ्चजन्यः पुरोहितः । तमीमहे महागयम् ॥
स्वर रहित पद पाठअग्निः । ऋषिः । पवमानः । पाञ्चऽजन्यः । पुरःऽहितः । तम् । ईमहे । महाऽगयम् ॥ ९.६६.२०
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 66; मन्त्र » 20
अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 10; मन्त्र » 5
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अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 10; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(अग्निः) ज्ञानस्वरूपः (ऋषिः) सर्वव्यापकः ऋषति ज्ञानदृष्ट्या सर्वत्र गच्छतीति यावत्। (पाञ्चजन्यः) पञ्चज्ञानेन्द्रियाणां शुभमार्गचालकः (पुरोहितः) वैदिकानामुपास्यः (महागयम्) वेदराशिरूपधनदाता परमात्मास्ति (तम् ईमहे) भवन्तं प्राप्नुमः ॥२०॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(अग्निः) ज्ञानस्वरूप (ऋषिः) सर्वव्यापक परमात्मा (पवमानः) सबको पवित्र करनेवाला है (पाञ्चजन्यः) पाँचों ज्ञानेन्द्रियों को शुभ मार्ग में चलानेवाला (पुरोहितः) वैदिक लोगों का एकमात्र उपास्य (महागयम्) वेदराशिरूप धन को देनेवाला है, (तम्) उसको (ईमहे) हम लोग प्राप्त हों ॥२०॥
भावार्थ
जो परमात्मा सर्वगत परिपूर्ण और नित्य-शुद्ध-बुद्ध-मुक्तस्वभाव है, जिसकी उपासना से ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रिय दोनों बलवीर्यसंपन्न होकर ऐश्वर्य के उपलब्ध करने का सर्वोपरि हेतु बनते हैं, हम एकमात्र उक्तगुणसंपन्न परमात्मा को ही अपना उपास्य समझें ॥२०॥
विषय
पांचजन्य प्रभु
पदार्थ
[१] (अग्निः) = वे प्रभु अग्रणी हैं, हमें अग्र स्थान पर प्राप्त करानेवाले हैं। (ऋषिः) = तत्त्वद्रष्टा हैं। (पवमानः) = हमें पवित्र करनेवाले हैं। (पाञ्चजन्यः) = पञ्चजन मात्र के लिये हितकर हैं। 'पञ्चजन' मनुष्य को कहते हैं जो 'पाँचो ज्ञानेन्द्रियों व पाँचों कर्मेन्द्रियों' की शक्ति का विकास करता है । वे प्रभु (पुरोहितः) = हमारे सामने आदर्श के रूप से स्थापित हैं, प्रभु में प्रत्येक गुण निरपेक्ष रूप में, निरतिशय रूप में विद्यमान है। उस उस गुण के अंश को प्राप्त करने का उपासक ने यत्न करना है । [२] (तम्) = उस (महागयम्) = खूब ही गायन के योग्य प्रभु को (ईमहे) = हम उन सब गुणों की प्राप्ति के लिये प्रार्थना करते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु का गायन करते हुए हम भी 'अग्नि, ऋषि व पवमान' बनकर 'पांचजन्य' बनने के लिये यत्नशील होते हैं।
विषय
पुरोहित का वर्णन। उसके कर्त्तव्य। उसकी महागृह, महाप्राण से उपमा।
भावार्थ
(अग्निः) अग्नि के समान तेजस्वी, ज्ञानवान्, अन्यों को प्रकाश देने वाला, (ऋषिः) मन्त्रार्थों का द्रष्टा, (पवमानः) सब को पवित्र करने वाला, सब का रक्षक, (पाञ्चजन्यः) पांचों जनों का हितकारक, (पुरोहितः) सब के समक्ष अध्यक्ष, साक्षीवत् स्थापित है। (तम् महा-गयम्) उस महाप्राण एवं महा गृह के समान सर्वाश्रय को हम (ईमहे) प्राप्त हों। इति दशमो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
शतं वैखानसा ऋषयः॥ १–१८, २२–३० पवमानः सोमः। १९—२१ अग्निर्देवता ॥ छन्दः- १ पादनिचृद् गायत्री। २, ३, ५—८, १०, ११, १३, १५—१७, १९, २०, २३, २४, २५, २६, ३० गायत्री। ४, १४, २२, २७ विराड् गायत्री। ९, १२,२१,२८, २९ निचृद् गायत्री। १८ पाद-निचृदनुष्टुप् ॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Agni is the light of life and fire of passion, pure and purifying energy ever radiative, universal inspirer of all people on earth and energiser of all five faculties, adorable leader of entire humanity and guiding spirit of the corporate life of all human communities together. We adore, serve and pray for the favour of such generous father of the household of humanity.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा सर्वव्यापक, परिपूर्ण व नित्य शुद्ध-बुद्ध युक्त स्वभाव आहे. त्याच्या उपासनेने ज्ञानेंद्रिये व कर्मेद्रिये दोन्ही, बल, वीर्य संपन्न होऊन ऐश्वर्य उपलब्ध करण्याचा हेतू बनतात. आम्ही एकमेव गुणसंपन्न परमात्म्यालाच आपले उपास्य समजावे. ॥२०॥
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