ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 67/ मन्त्र 27
ऋषिः - पवित्रो वसिष्ठो वोभौः वा
देवता - अग्निर्विश्वे देवा वा
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
पु॒नन्तु॒ मां दे॑वज॒नाः पु॒नन्तु॒ वस॑वो धि॒या । विश्वे॑ देवाः पुनी॒त मा॒ जात॑वेदः पुनी॒हि मा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठपु॒नन्तु॑ । माम् । दे॒व॒ऽज॒नाः । पु॒नन्तु॑ । वस॑वः । धि॒या । विश्वे॑ । दे॒वाः॒ । पु॒नी॒त । मा॒ । जात॑ऽवेदः । पु॒नी॒हि । मा॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
पुनन्तु मां देवजनाः पुनन्तु वसवो धिया । विश्वे देवाः पुनीत मा जातवेदः पुनीहि मा ॥
स्वर रहित पद पाठपुनन्तु । माम् । देवऽजनाः । पुनन्तु । वसवः । धिया । विश्वे । देवाः । पुनीत । मा । जातऽवेदः । पुनीहि । मा ॥ ९.६७.२७
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 67; मन्त्र » 27
अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 18; मन्त्र » 2
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अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 18; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(देवजनाः) विद्वज्जनाः (माम्) मामुपदेशेन (पुनन्तु) पवित्रयन्तु (वसवः) नैष्ठिका ब्रह्मचारिणः (धिया) स्वीयशुद्धबुद्ध्या (पुनन्तु) पवित्रयन्तु (विश्वे देवाः) हे विद्वांसः ! (माम्) मां (पुनीत) यूयं पवित्रयत। तथा (जातवेदः) हे जगदीश्वर ! (मा) मां (पुनीहि) पवित्रय ॥२७॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(देवजनाः) विद्वान् जन (मा) मुझको उपदेश द्वारा (पुनन्तु) पवित्र करें। (वसवः) नैष्ठिक ब्रह्मचारी गण (धिया) अपनी शुद्ध बुद्धि द्वारा (पुनन्तु) पवित्र करें (विश्वेदेवाः) हे विद्वानों ! (मां) मुझको आप लोग (पुनीत) पवित्र करें। तथा (जातवेदः) हे परमात्मन् ! (मा) मुझको (पुनीहि) पवित्र करिए ॥२७॥
भावार्थ
इस मन्त्र में परमात्मा ने विद्वानों के उपदेश द्वारा पवित्रता का उपदेश दिया है कि हे जीवो ! तुम अपने विद्वानों से तथा ब्रह्मचारी गणों से सदैव सद्बुद्धि का ग्रहण किया करो ॥२७॥
विषय
चारों आश्रमों की पवित्रता
पदार्थ
[१] जीवन के प्रथमाश्रम में (देवजना:) = माता, पिता व आचार्य रूप देवजन [मातृ देवो भव, पितृ देवो भव, आचार्य देवो भव] (मा:) = मुझे (पुनन्तु) = पवित्र करें। माता मेरे चरित्र का निर्माण करे, पिता शिष्टाचार को मुझे सिखाये तथा आचार्य मुझे ज्ञान का भोजन ग्रहण करायें। [२] अब गृहस्थ में (वसवः) = गार्हस्थ्य जीवन में निवास को उत्तम बनानेवाले [वासयन्ति इति वसवः ] समय-समय पर उपस्थित होनेवाले अतिथिजन (धिया) = ज्ञानपूर्वक कर्मों के द्वारा पुनन्तु हमें पवित्र करें। 'अतिथि देवो भव' ये विद्वान् अतिथि हमारे लिये देवतुल्य हों, और इनकी समय-समय पर प्राप्त होनेवाली प्रेरणा के अनुसार कर्म करते हुए हम पवित्र जीवनोंवाले बनें। [३] जीवन के तृतीय आश्रम में (विश्वे देवाः) = हे देववृत्ति के पुरुषो! (मा) = मुझे (पुनीत) = पवित्र करो। वानप्रस्थ में मेरा सान्निध्य सब देववृत्ति के पुरुषों से हो। उनके साथ निरन्तर होनेवाली ज्ञानचर्चा मेरे जीवन को पवित्र बनाये । [३] अन्ततः संन्यास में, एकाकी विचरण के नियमवाले इस तुरीयाश्रम में, हे (जातवेदः) = सर्वज्ञ प्रभो ! (मा पुनीहि) = आप मुझे पवित्र करिये मैं सदा आपका स्मरण करूँ और पवित्र जीवनवाला बना रहूँ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रथमाश्रम में देवजन, द्वितीयाश्रम में वसु, तृतीय में विश्वेदेव व तुरीय में सर्वज्ञ प्रभु मेरे जीवन को पवित्र बनायें।
विषय
तेजस्वी ज्ञानी लोग सबको पवित्र करें।
भावार्थ
(देव-जनाः) शुभ गुणों का प्रकाश करने वाले जन (मां पुनन्तु) मुझे पवित्र करें। (वसवः) प्राणों के तुल्य उत्तम आश्रमों में बसने वाले जन (धिया) ज्ञान और कर्म द्वारा (मां पुनन्तु) मुझे पवित्र करें (विश्वे देवाः) हे समस्त विद्वान् जनो ! (मां पुनीत) मुझे पवित्र करो हे (जातवेदः मां पुनीहि) ज्ञानवन् ! तू मुझे पवित्र कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः-१—३ भरद्वाजः। ४—६ कश्यपः। ७—९ गोतमः। १०–१२ अत्रिः। १३—१५ विश्वामित्रः। १६—१८ जमदग्निः। १९—२१ वसिष्ठः। २२—३२ पवित्रो वसिष्ठौ वोभौ वा॥ देवताः—१–९, १३—२२, २८—३० पवमानः सोमः। १०—१२ पवमानः सोमः पूषा वा। २३, २४ अग्निः सविता वा। २६ अग्निरग्निर्वा सविता च। २७ अग्निर्विश्वेदेवा वा। ३१, ३२ पावमान्यध्येतृस्तुतिः॥ छन्द:- १, २, ४, ५, ११—१३, १५, १९, २३, २५ निचृद् गायत्री। ३,८ विराड् गायत्री । १० यवमध्या गायत्री। १६—१८ भुरिगार्ची विराड् गायत्री। ६, ७, ९, १४, २०—२२, २, २६, २८, २९ गायत्री। २७ अनुष्टुप्। ३१, ३२ निचृदनुष्टुप्। ३० पुरउष्णिक्॥ द्वात्रिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
May the brilliant generous sages and scholars purify me. May the Vasus, givers of peace and settlement, sanctify me with knowledge and wisdom. May all divinities of nature and humanity vitalise me. O Jataveda, omniscient Agni, pray purify and sanctify me.
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात परमात्म्याने विद्वानाच्या उपदेशाद्वारे पवित्रतेचा उपदेश केलेला आहे की हे जीवांनो! तुम्ही आपल्या विद्वानांकडून व ब्रह्मचारी लोकांकडून सदैव सदबुद्धी ग्रहण करा. ॥२७॥
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