ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 67/ मन्त्र 29
ऋषिः - पवित्रो वसिष्ठो वोभौः वा
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
उप॑ प्रि॒यं पनि॑प्नतं॒ युवा॑नमाहुती॒वृध॑म् । अग॑न्म॒ बिभ्र॑तो॒ नम॑: ॥
स्वर सहित पद पाठउप॑ । प्रि॒यम् । पनि॑प्नतम् । युवा॑नम् । आ॒हु॒ति॒ऽवृध॑म् । अग॑न्म । बिभ्र॑तः । नमः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
उप प्रियं पनिप्नतं युवानमाहुतीवृधम् । अगन्म बिभ्रतो नम: ॥
स्वर रहित पद पाठउप । प्रियम् । पनिप्नतम् । युवानम् । आहुतिऽवृधम् । अगन्म । बिभ्रतः । नमः ॥ ९.६७.२९
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 67; मन्त्र » 29
अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 18; मन्त्र » 4
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अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 18; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(प्रियम्) सर्वानन्ददायकं (पनिप्नतम्) वेदादिशब्द- राश्याविर्भावकं (युवानम्) सदैकरसं (आहुतीवृधम्) प्रकृत्या महान्तं परमात्मानं (नमः) नम्रतादिभावान् (बिभ्रतः) धारयन्तो वयं (उपागन्म) प्राप्नुम ॥२९॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(प्रियं) सबको प्रसन्न करनेवाले (पनिप्नतं) वेदादि शब्दराशि के आविर्भावक (युवानं) सदा एकरस (आहुतीवृधं) जो अपनी प्रकृतिरूपी आहुति से बृहत् है, उक्त गुणसम्पन्न परमात्मा को (नमः) नम्रतादि भावों को (बिभ्रतः) धारण करते हुए हम लोग (उपागन्म) प्राप्त हों ॥२९॥
भावार्थ
इस मन्त्र में परमात्मा नम्रतादि भावों का उपदेश करता है कि हे मनुष्यों ! नम्रतादि भावों को धारण करते हुए उक्त प्रकार की प्रार्थनाओं से मुझको प्राप्त हो ॥२९॥
विषय
प्रभु के समीप उपस्थित होना
पदार्थ
[१] गतमन्त्र में वर्णित सोम के रक्षण के लिये (नमः बिभ्रतः) = नमन को धारण करते हुए हम (उप अगन्म) = समीपता से, उपासक के रूप में प्राप्त हों । सदा प्रातः सायं मन में नम्रता को धारण करते हुए प्रभु की उपासना करें। यह उपासना ही हमें वासनाओं के आक्रमण से बचाकर सोमरक्षण के योग्य बनायेगी, [२] उस प्रभु का हम उपासन करें जो प्(रियम्) = हमारी प्रीति का कारण बनते हैं, प्रभु के प्रकाश को हृदय में देखते हुए एक अद्भुत ही आनन्द का हम अनुभव करते हैं । (पनिप्नतम्) = [पन स्तुतौ] वे प्रभु खूब ही स्तुति के योग्य हैं। शब्द प्रभु की स्तुति को सीमित नहीं कर पाते, प्रभु की महिमा वर्णनातीत है, (वाचाम्) = अगोचर है । (युवानम्) = वे प्रभु हमारी सब बुराइयों को हमारे से दूर करके सब अच्छाइयों को हमारे से मिलानेवाले हैं [यु मिश्रणामिश्रणयोः] । (आहुतीवृधम्) = वे प्रभु हमारे जीवनों में आहुति-त्यागवृत्ति को बढ़ानेवाले हैं। स्वयं हविरूप होते हुए वे हमें भी हविर्मय बनने की प्रेरणा देते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- हम प्रभु का उपासन करें। प्रभु हमें प्रीति को प्राप्त करायेंगे, हमारी बुराइयों को दूर करेंगे, हमारे जीवनों में त्यागभावनाओं को बढ़ायेंगे ।
विषय
उत्तम अन्न जल, आदि दुग्ध आदि की वृद्धि करना।
भावार्थ
हम (नमः बिभ्रतः) उत्तम अन्न और विनय आदरयुक्त वचन को धारण करते हुए (प्रियं) प्रिय (पनिप्नतम्) उपदेश करने वाले (युवानम्) युवा (आहुति-वृधम्) आदरपूर्वक आहुति दानादि से बढ़ने वा बढ़ाने वाले विद्वान् गुरु को (उप अगन्म) शिष्यवत् प्राप्त हों।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः-१—३ भरद्वाजः। ४—६ कश्यपः। ७—९ गोतमः। १०–१२ अत्रिः। १३—१५ विश्वामित्रः। १६—१८ जमदग्निः। १९—२१ वसिष्ठः। २२—३२ पवित्रो वसिष्ठौ वोभौ वा॥ देवताः—१–९, १३—२२, २८—३० पवमानः सोमः। १०—१२ पवमानः सोमः पूषा वा। २३, २४ अग्निः सविता वा। २६ अग्निरग्निर्वा सविता च। २७ अग्निर्विश्वेदेवा वा। ३१, ३२ पावमान्यध्येतृस्तुतिः॥ छन्द:- १, २, ४, ५, ११—१३, १५, १९, २३, २५ निचृद् गायत्री। ३,८ विराड् गायत्री । १० यवमध्या गायत्री। १६—१८ भुरिगार्ची विराड् गायत्री। ६, ७, ९, १४, २०—२२, २, २६, २८, २९ गायत्री। २७ अनुष्टुप्। ३१, ३२ निचृदनुष्टुप्। ३० पुरउष्णिक्॥ द्वात्रिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
May we, bearing yajnic homage, reach Soma, dear, admirably vocal and expressive, youthful creator and promoter of nature’s and humanity’s yajnic offerings into the divine yajnic evolution of the cosmos.
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात परमात्मा नम्रता इत्यादी भावांचा उपदेश करतो की हे मनुष्यांनो! तुम्ही नम्रता इत्यादींना धारण करत वरील प्रकारच्या प्रार्थनांनी मला प्राप्त करून घ्या. ॥२९॥
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