ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 70/ मन्त्र 6
ऋषिः - रेनुर्वैश्वामित्रः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - निचृज्जगती
स्वरः - निषादः
स मा॒तरा॒ न ददृ॑शान उ॒स्रियो॒ नान॑ददेति म॒रुता॑मिव स्व॒नः । जा॒नन्नृ॒तं प्र॑थ॒मं यत्स्व॑र्णरं॒ प्रश॑स्तये॒ कम॑वृणीत सु॒क्रतु॑: ॥
स्वर सहित पद पाठसः । मा॒तरा॑ । न । ददृ॑शानः । उ॒स्रियः॑ । नान॑दत् । ए॒ति॒ । म॒रुता॑म्ऽइव । स्व॒नः । जा॒नन् । ऋ॒तम् । प्र॒थ॒मम् । यत् । स्वः॑ऽनरम् । प्रऽश॑स्तये । कम् । अ॒वृ॒णी॒त॒ । सु॒ऽक्रतुः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
स मातरा न ददृशान उस्रियो नानददेति मरुतामिव स्वनः । जानन्नृतं प्रथमं यत्स्वर्णरं प्रशस्तये कमवृणीत सुक्रतु: ॥
स्वर रहित पद पाठसः । मातरा । न । ददृशानः । उस्रियः । नानदत् । एति । मरुताम्ऽइव । स्वनः । जानन् । ऋतम् । प्रथमम् । यत् । स्वःऽनरम् । प्रऽशस्तये । कम् । अवृणीत । सुऽक्रतुः ॥ ९.७०.६
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 70; मन्त्र » 6
अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 24; मन्त्र » 1
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अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 24; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(मातरा ददृशानः) मातरं पश्यन् (न) यथा वत्सः (नानदत्) शब्दं कृत्वा (उस्रियः) गोसम्मुखं (एति) गच्छति। तथा (सः) असौ (सुक्रतुः) शोभनकर्मोपासकः (मरुतां स्वन इव) कर्मयोगिविदुषां शब्दैः (ऋतम्) सत्यम् (जानन्) अवगतं कुर्वन् (स्वर्णरम्) सर्वहितकारकम् (प्रथमम्) अनादिं (कम्) सुखरूपं परमात्मानं (प्रशस्तये) प्रशंसायै (अवृणीत) स्वीकरोति ॥६॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(मातरा ददृशानः) माता को देखता हुआ (न) जैसे वत्स (नानदत्) शब्द करके (उस्रियः) गौ के सम्मुख (एति) जाता है, इसी प्रकार (सः) वह (सुक्रतुः) शोभनकर्मा उपासक (मरुतां स्वन इव) कर्मयोगी विद्वानों के शब्दों से (ऋतम्) सत्य को (जानन्) जानता हुआ (स्वर्णरम्) सर्वहितकारक (प्रथमम्) अनादि (कम्) सुखरूप परमात्मा की (प्रशस्तये) प्रशंसा के लिये (अवृणीत) उस परमात्मा को स्वीकार करता है ॥६॥
भावार्थ
जो पुरुष ब्रह्मामृतवर्षिणी धेनु के समान परमात्मा को कामधेनु समझकर उसकी उपासना करता है, वह अन्य किसी सुख की अभिलाषा नहीं करता ॥६॥
विषय
कं अवृणीत सुक्रतुः
पदार्थ
[१] (सः) = वह सोम (उस्त्रियः न) = मानो प्रकाश ही प्रकाश है [brightness] । यह ज्ञानाग्नि को दीप्त करता है। (मातरा ददृशानः) = माता-पिता, अर्थात् पृथिवी व द्युलोक [शरीर व मस्तिष्क] का ध्यान करता हुआ (नानदत्) = गर्जना करता हुआ, प्रभु के स्तोत्रों का उच्चारण करता हुआ एति हमें प्राप्त होता है। यह (मरुतां इव स्वन:) =- वायुओं के गर्जन के समान शब्दवाला होता है। सोमरक्षण से शरीर नीरोग बनता है, मस्तिष्क दीप्त होता है तथा हृदय प्रभु स्तवन की वृत्तिवाला होता है। परिणामतः वाणी प्रभु के स्तोत्रों का ऊँचे-ऊँचे उच्चारण करनेवाली बनती है । [२] यह सोमरक्षण करनेवाला पुरुष (सुक्रतुः) = शोभनकर्मा होता हुआ (प्रथमम्) = सृष्टि के प्रारम्भ में दिये जानेवाले (स्वर्णरम्) = स्वर्ग को प्राप्त करानेवाले (ऋतम्) = सत्य वेदज्ञान को (जानन्) = जानता हुआ (यत्) = जब होता है तो (प्रशस्तये) = जीवन की प्रशस्ति के लिये (कं अवृणीत) = उस आनन्दस्वरूप परमात्मा का वरण करता है । सोमरक्षक का झुकाव प्रभु की ओर होता है। भोग प्रवण व्यक्ति प्रकृति की ओर जाता है।
भावार्थ
भावार्थ- सोम शरीर व मस्तिष्क दोनों को उत्तम बनाता है। हृदय में प्रभु के स्तवनवाला हमें बनाता है। सोमी पुरुष सत्य वेदज्ञान को जानता हुआ प्रभु का वरण करता है ।
विषय
प्रभु के उपासक परिव्राजक की लोक-सेवा।
भावार्थ
(यत्) जो वह स्वयं (सु-क्रतुः) उत्तम कर्मवान् होकर (प्रशस्तये) उत्तम स्तुति के लिये (प्रथमं) सर्वश्रेष्ठ (स्व:-नरम्) सुखस्वरूप तेजोमय, सर्वसञ्चालक, प्रेरक परम पुरुष प्रभु को ही (कम्) सुखमय जानकर (अवृणीत) वरण करता है। तब (सः) वह (उस्त्रियः) उत्तम मार्ग में ले जाने वालों को (मातरा) माता पिता के समान (ददृशानः) देखता हुआ, (मरुताम् इव स्वनः) वायुओं के गर्जते ध्वनि के तुल्य स्वयं भी (स्वनः) उपदेशकर्त्ता होकर (प्रथमम्) सर्वोत्तम (ऋतं) वेद-ज्ञान को (जानन्) जानता हुआ (नानदद् एति) निरन्तर उपदेश करता हुआ परिव्राजकवत् आता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
रेणुर्वैश्वामित्र ऋषिः। पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:- १, ३ त्रिष्टुप्। २, ६, ९, १० निचृज्जगती। ४, ५, ७ जगती। ८ विराड् जगती। दशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
As mother cows watch and guard the calves, so does Soma, lord of light and power of life, vibrant and resonant like roaring winds, pervade, watch and vitalise heaven and earth, mother givers of life and sustenance. And the man of holy action, knowing the cosmic law of divinity and the prime paradisal agent of the good of humanity, should love and worship that Soma for his self-fulfilment.
मराठी (1)
भावार्थ
जो पुरुष ब्रह्मामृत वर्षिणी धेनूप्रमाणे परमात्म्याला कामधेनू समजून त्याची उपासना करतो. तो अन्य कोणत्या सुखाची अभिलाषा करत नाही. ॥६॥
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