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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 73 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 73/ मन्त्र 4
    ऋषिः - पवित्रः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    स॒हस्र॑धा॒रेऽव॒ ते सम॑स्वरन्दि॒वो नाके॒ मधु॑जिह्वा अस॒श्चत॑: । अस्य॒ स्पशो॒ न नि मि॑षन्ति॒ भूर्ण॑यः प॒देप॑दे पा॒शिन॑: सन्ति॒ सेत॑वः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒हस्र॑ऽधारे । अव॑ । ते । सम् । अ॒स॒र॒न् । दि॒वः । नाके॑ । मधु॑ऽझ्वाः । अ॒स॒श्चतः॑ । अस्य॑ । स्पशः॑ । न । नि । मि॒ष॒न्ति॒ । भूर्ण॑यः । प॒देऽप॑दे । पा॒शिनः॑ । स॒न्ति॒ सेत॑वः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सहस्रधारेऽव ते समस्वरन्दिवो नाके मधुजिह्वा असश्चत: । अस्य स्पशो न नि मिषन्ति भूर्णयः पदेपदे पाशिन: सन्ति सेतवः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सहस्रऽधारे । अव । ते । सम् । असरन् । दिवः । नाके । मधुऽझ्वाः । असश्चतः । अस्य । स्पशः । न । नि । मिषन्ति । भूर्णयः । पदेऽपदे । पाशिनः । सन्ति सेतवः ॥ ९.७३.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 73; मन्त्र » 4
    अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 29; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    हे जगन्नियन्तः परमेश्वर ! (ते) तव (सेतवः) मर्यादारूपाः सेतवः (पदेपदे सन्ति) स्थाने स्थाने विद्यन्ते। अथ च ते मर्यादासेतवः (पाशिनः) पापिभ्यो दण्डदातारः। तथा (भूर्णयः) क्षिप्रकारिणस्सन्ति। अथ च (न निमिषन्ति) तदवमानं कृत्वा न कोऽपि स्थातुं शक्नोति। (अस्य) अमुष्य परमात्मनः (स्पशः) सारभूतानि (असश्चतः) अनन्तानि ज्योतींषि सन्ति। हे परमात्मन्   ! भवान् (सहस्रधारे) अनन्तानन्दस्वरूपे (अव) मम रक्षां करोतु। तथा (दिवः नाके) द्युलोकमध्ये (समस्वरन्) ये स्यन्दमाना भवदानन्दाः (मधुजिह्वा) ये आह्लादनीयास्ते मां प्राप्नुवन्तु ॥४॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    हे परमात्मन् ! (ते) आपके (सेतवः) मर्यादारूप सेतु (पदेपदे सन्ति) पद-पद पर हैं और वे मर्यादारूप सेतु (पाशिनः) पापियों के दण्डदाता हैं। (भूर्णयः) शीघ्रता करनेवाले हैं और (न निमिषन्ति) उनके सामने कोई आँख उठाकर नहीं देख सकता। (अस्य) उस परमात्मा के (स्पशः) सारभूत (असश्चतः) अनन्त ज्योतियें हैं। हे परमात्मन् ! आप (सहस्रधारे) अनन्त आनन्दस्वरूप में (अव) हमारी रक्षा करें और (दिवः नाके) द्युलोक के मध्य में (समस्वरन्) स्रवित होते हुए आपके आनन्द (मधुजिह्वा) जो अत्यन्त आह्लादजनक हैं, वे हमको प्राप्त हों ॥४॥

    भावार्थ

    परमात्मा के आनन्द की सहस्त्रों धाराएँ इस संसार में इतस्ततः सर्वत्र बह रही हैं। जो पुरुष परमात्मा की आज्ञाओं का पालन करता है, वही उन आनन्दों को प्राप्त करता है, अन्य नहीं ॥४॥

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    विषय

    प्रभु के उपासकों का वर्णन। पक्षान्तर में गुरु के अधीन वेदाध्यायी जनों का वर्णन। उनके कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    जिस प्रकार (सहस्र-धारे नाके) सहस्रों लोकों को धारण करने वाले वा जगत् के धारक आकाश में (दिवः) समस्त तेजस्वी गतिमान् गगनविहारी सूर्यादिलोक वा किरणें एक साथ (सम् अस्वरन्) गति करते, चमकते हैं और वे (असश्चतः) कहीं आसक्त न रह कर भी (मधु-जिह्वाः) जल को ग्रहण करने वाले, शब्द-अग्नि-संयोग को अपने अग्रभाग में धारने वाले होते हैं उसी प्रकार (दिवः) तेजोयुक्त ज्ञानी पुरुष (असश्चतः) निःसंग और (मधु-जिह्वाः) ज्ञान-युक्त, मधुर वाणियों को बोलने वाले, वेदवक्ता लोग (सहस्र-धारे) सहस्रों वेद वाणियों और शक्तियों को धारण करने वाले (नाके) परम सुखमय मोक्ष रूप प्रभु में विराजते हुए (सम् अस्वरन्) मिलकर उसका अच्छी प्रकार स्तुति करते हैं। इसी प्रकार मधुर वाणी वाले असंग विद्यार्थी जन असंख्य या ‘सहस्र’ नाम ऋग्वेद के धारक आचार्य के अधीन अच्छी प्रकार वेद पाठ करें। (अस्य भूर्णयः) इसके प्रजापालक जन रश्मियों वा आकाशस्थ सूर्यादि के तुल्य ही (स्पशः) दूतों के तुल्य यथार्थ बात को दर्शाने वाले (न निमिषन्ति) कभी निमेष को प्राप्त नहीं होते, कभी छिपते या बन्द नहीं होते, वे (पदे-पदे) पद पद पर (पाशिनः) आकर्षण शक्ति के जालों से युक्त सूर्यादि के तुल्य ही (पाशिनः) दुष्टों के संयम साधनों से सम्पन्न होकर ही (सेतवः सन्ति) दुष्ट जनों को बांधने वाले, जल के बंधों के समान मर्यादा का स्थापन करने वाले होते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    पवित्र ऋषिः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्दः– १ जगती। २-७ निचृज्जगती। ८, ९ विराड् जगती ॥

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    विषय

    सुन्दरतम जीवन

    पदार्थ

    [१] (सहस्त्रधारे) = हजारों प्रकार से धारण करनेवाले उस प्रभु में (दिवः नाके) = प्रकाश के सुखमय लोक में स्थित हुए हुए (ते) = वे सोमरक्षक पुरुष (अव समस्वरन्) = संसार के विषयों से दूर होकर प्रभु का गुणगान करते हैं। 'सदा प्रभु में स्थित होना तथा स्वाध्याय द्वारा प्रकाशमय लोक में स्थित होने का प्रयत्न करना' ही विषयों से बचने का तरीका है। ये लोग व्यवहार में भी (मधुजिह्वाः) = मधुरवाणीवाले होते हैं कभी कड़वे शब्द नहीं बोलते और (असश्चतः) = कहीं आसक्त नहीं होते । अनासक्त भाव से अपने कर्त्तव्य कर्मों को करते चलते हैं । [२] ये व्यक्ति (अस्य स्पशः) = इस प्रभु के देखनेवाले होते हैं [ स्पश् To perceive clearly] (न निमिषन्ति) = कभी पलक नहीं मारते, अर्थात् सो नहीं जाते, अप्रमत्त रहते हैं । (भूर्णयः) = सदा पालनात्मक कर्मों में प्रवृत्त रहते हैं। (पदे पदे) = कदम-कदम पर (पाशिनः) = काम-क्रोध आदि पशुओं को पाश में बाँधनेवाले, (सेतवः सन्ति) = लोगों को भवसागर से पार करने के लिये पुल के समान होते हैं। स्वयं काम- क्रोध को जीतते हैं तथा औरों को ज्ञानोपदेश देकर भवसागर से पार करने में सहायक होते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ-प्रभु-भक्त सदा उपासना व स्वाध्याय में प्रवृत्त होता है । मधुरवाणीवाला, अनासक्त,प्रभु का देखनेवाला, अप्रमत्त व धारणात्मक कर्मों में लगा हुआ होता है। काम-क्रोध को वश में करनेवाला व औरों को ज्ञान देकर तरानेवाला होता है ।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    In this world of a thousand streams of soma joy and divine generosity, the soma souls in humanity sing and swim in action, sweet of tongue, mind and will, joining the paradisal vision of heavenly light. The instant and watchful eyes of the dynamics of divinity, all enveloping and all beholding, are ever awake without a wink for the moment. O lord, at every step the binding bonds are there, and there are saviour bridges as well.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्म्याच्या आनंदाच्या सहस्रधारा या जगात इकडे तिकडे प्रवाहित होत आहेत. जो पुरुष परमात्म्याच्या आज्ञांचे पालन करतो तोच त्या आनंदांना प्राप्त करतो. ॥४॥

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